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रविवार, 14 मार्च 2021

शोध में सामग्री संकलन

शोध में सामग्री संकलन

किसी शोध-कार्य के प्राथमिक उद्यमों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सामग्री-संकलन का काम होता है। विषय-वस्तु से सम्बन्धित तथ्यों के संकलन की सावधानी और विश्वसनीयता ही किसी शोध-कार्य को उत्कर्ष एवं महत्ता देती है। इसमें शोधार्थी की निष्ठा का बड़ा महत्त्व होता है। सामग्री-संकलन को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है--

प्राथमिक सामग्री: प्राथमिक सामग्री किसी शोध के लिए आधार-सामग्री होती है। इसी के सहारे कोई शोधकर्मी अपने अगले प्रयाण की ओर बढ़ता है। इन सामग्रियों का शोध-विषय से सीधा सम्बन्ध होता है। अपने शोध-विषय से सम्बद्ध समस्याओं के समाधान हेतु शोधार्थी विभिन्न स्रोतों, संसाधनों, उद्यमों से सामग्री एकत्र करते हैं। विभिन्न अवलोकनों, सर्वेक्षणों, प्रश्नावलियों, अनुसूचियों अथवा साक्षात्कारों द्वारा वे तथ्य के निकट पहुँचने की चेष्टा करते हैं। उनके द्वारा संकलित ये ही तथ्य-स्रोत प्राथमिक सामग्री कहलाते हैं। ऐसे तथ्यों का संकलन शोधार्थी प्रायः अध्ययन-स्थल पर जाकर करते हैं। समाज-शास्त्र विषयक शोध-सामग्री-संग्रह के ऐसे स्रोत को क्षेत्रीय-स्रोत भी कहा जाता है।

प्राथमिक सामग्री-संकलन की कई विधियाँ होती हैं। सूत्रबद्ध करने हेतु इसकी पहली विधि का नाम सामान्य तौर पर प्रत्यक्ष अवलोकन दिया जाता है। साहित्यिक विषयों से सम्बद्ध शोध के लिए इस विधि में वे कार्य आएँगे, जिसमें शोधार्थी अपने शोधविषयक मूल-सामग्री प्राप्त करने हेतु सूचित स्थान पर जाते हैं, अथवा सूचित व्यक्ति से मिलते हैं, और सूचित सामग्री को अपनी नजरों से स्वयं देखते हैं, अपनी ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करते हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई शोधार्थी का विषय रामकथा के कुमायूँनी प्रदर्शन से सम्बद्ध है, तो कुमायूँ क्षेत्र में जाकर वहाँ के रामकथा की मंचीय प्रस्तुति स्वयं देखना और उसे किसी सम्भव माध्यम में सुरक्षित कर लेना तद्विषयक प्रत्यक्ष अवलोकित तथ्य-संग्रह, या सामग्री-संकलन हुआ। सामाजिक शोध में प्रत्यक्ष अवलोकन ज्ञान-प्राप्ति का मुख्य स्रोत है। इस पद्धति के अन्तर्गत शोधार्थी स्वयं अध्ययन स्थल पर जाकर अपने विषय से सम्बन्धित घटनाओं तथा व्यवहार का अवलोकन कर सूचना एकत्र करते हैं। समाज के रहन-सहन, आचार-व्यवहार, भाषा, त्यौहार, रीति-रिवाजों के बारे में अध्यययन करने के लिए यह विधि सबसे अधिक उपयोगी और विश्वसनीय है। इस विधि का इस्तेमाल सबसे पहले सन् 1017 में फारसी विद्वान अल-बिरुनी ने अपनी भारत और श्रीलंका यात्रा में किया था। अल-बिरुनी ने भारतीय उपमहाद्वीप में रहकर, वहाँ की भाषाएँ सीखकर तुलनात्मक अध्ययन द्वारा वहाँ के समाज, धर्मों और परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत किया था। आधुनिक अर्थ में इस विधि का उपयोग सबसे पहले आधुनिक मानवविज्ञान के पिता कहे जाने वाले अमेरिकी मानवविज्ञानी फ्रांज बोआज (सन् 1858-1942) ने शुरू किया। जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, इयुगिन पेत्रोविच चेलिशेव, लिण्डा हेस्स जैसे शोधवेत्ता इस प्रसंग के लिए बेहतरीन उदाहरण हैं। वर्तमान में इस विधि का सबसे अधिक उपयोग समाजशास्त्र, सांस्कृतिक मानवविज्ञान, भाषाविज्ञान तथा सामाजिक मनोविज्ञान में होता है।

इसकी दो पद्धतियाँ हैं--सहभागी अवलोकन एवं असहभागी अवलोकन। सहभागी अवलोकन में शोधार्थी सर्वेक्षण-निरीक्षण में प्रत्यक्ष अथवा प्रच्छन्न (किसी को बताए बिना) रूप से सहभागी रहता है। पागल लोगों के अस्पताल से सम्बन्धित अपने अध्ययन के दौरान प्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्‍त्री एर्विंग गाॅफमैन ने सन् 1968 में प्रच्छन्न सहभागी के रूप में एक पागलखाने में खेल प्रशिक्षक बन कर अवलोकन किया था। प्रत्यक्ष सहभागी अवलोकन में शोधार्थी के शोध के बारे में कुछ ही लोगों को पता होता है। प्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्‍त्री विलियम व्हाइट ने अपनी शोध-पुस्तक स्ट्रीट कॉर्नर सोसाइटी (1943) के लिए बॉस्टन शहर के इतालवी-अमेरिकी गिरोहों की सामाजिक स्थिति के बारे में शोध करते हुए प्रत्यक्ष सहभागी अवलोकन पद्धति का इस्तेमाल किया था। उनके उस शोध के बारे में गिरोह के सरगना को जानकारी थी।

असहभागी अवलोकन में शोधार्थी सर्वेक्षण-निरीक्षण में सहभाग लिए बिना, एक दर्शक या श्रोता होता है। प्रत्यक्ष अथवा प्रच्छन्न असहभागी अवलोकन की स्थिति यहाँ भी होती है। प्रत्यक्ष असहभागी अवलोकन में अवलोकित व्यक्ति या समूह को अपने अवलोकित होने की जानकारी रहती है, जैसे दूरदर्शन के किसी रीयल्टी शो के प्रतिभागियों को उनके दिखाए जाने की बखूबी जानकारी होती है, जबकि प्रच्छन्न अवलोकन में अवलोकित व्यक्ति या समूह को अपने अवलोकित होने की जानकारी नहीं रहती। सन् 2015 में एन.डी.टी.वी. इण्डिया ने सर्वेक्षण की एक शृंखला शुरू की थी; जिसमें सुनियोजित ढंग से उनके द्वारा सुनिश्चित व्यक्ति ही रहते थे। उस शृंखला में बुजुर्गों, विकलांगों के प्रति आम नागरिक की संवेदनशीलता, या कि युवती के गोरी-साँवली होने के मसलों को लेकर आम नागरिकों की धारणाएँ जानने का उद्यम किया गया था। उनके कुछ कलाकार किसी सार्वजनिक स्थल पर जाकर वहाँ उपस्थित किसी बुजुर्ग, विकलांग, या साँवली युवती पर अशोभनीय टिप्पणी कर देते थे; आसपास उपस्थित आम नागरिक उनके इस आचरण पर उग्र हो जाते थे। नागरिक उग्रता  चरम पर पहुँचने से पूर्व ही छिपकर शूटिंग कर रही उनकी कैमरा टीम सामने आ जाती थी, और अपने शोध का रहस्योद्घाटन कर देती थी। एन.डी.टी.वी. इण्डिया के इस सर्वेक्षण को ऐसे ही अप्रत्यक्ष अवलोकन की श्रेणी में रखा जा सकता है। ऐसा अवलोकन बहुधा फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी आदि की मदद से होता है, छोटे बच्चों या जानवरों पर किए जाने वाले शोध में इसका उपयोग किया जाता है।


 

प्रश्नावली: शोध-कार्य के दौरान प्रश्नावली एक महत्त्वपूर्ण शोध-उपकरण है। इसमें प्रश्नों की क्रमबद्ध सूची होती है। इसका उद्देश्य अध्ययन विषय से सम्बन्धित प्राथमिक तथ्यों का संकलन करना होता है। जब अध्ययन क्षेत्र बहुत विस्तृत हो, प्रत्यक्ष अवलोकन सम्भव न हो, या फिर शोधार्थी के प्रत्यक्ष अवलोकन से सारे तथ्यों की उपलब्धता सन्दिग्ध हो, तो इस पद्धति का उपयोग किया जाता है।


 

सामाजिक-साहित्यिक शोध के दौरान प्राथमिक सर्वेक्षण और तथ्य संग्रह में प्रश्नावली का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इसमें विषय की समस्या से सम्बन्धित प्रश्न रहते हैं। आम तौर पर सर्वेक्षण के लिए इसके अलावा अनुसूची का भी प्रयोग किया जाता है। क्योंकि प्रश्नावली एवं अनुसूची--दोनों समान सिद्धान्तों पर आधारित होती हैं। इसी आधार पर लुण्डबर्ग ने प्रश्नावली को एक विशेष प्रकार की अनुसूची माना, जो प्रयोग की दृष्टि से अपनी निजता स्थापित करती है। 

विषय विशेषज्ञों अथवा विषय-प्रसंग से सम्बद्ध लोगों से सूचना प्राप्त करने हेतु बनाए गए प्रश्नों की सुव्यवस्थित सूची को प्रश्नावली की संज्ञा दी जाती है; अर्थात प्रश्नावली में अध्ययन-अनुशीलन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर पहले से तैयार किए गए प्रश्नों का समावेश होता है। उत्तरदाता की सुविधा अथवा सदाशयता के अनुसार शोधार्थी उन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करते हैं। ये उत्तर भारतीय डाक अथवा ई-मेल अथवा आमने-सामने पूछकर प्राप्त किए जा सकते हैं।

प्रश्नावली तैयार करने में अन्ततः शोधार्थी की शोध-दृष्टि का बड़ा महत्त्व होता है। कई विशेषज्ञों के लिए एक ही प्रश्नावली हो सकती है, पर कई बार उत्तरदाता की विशेषज्ञता के आधार पर प्रश्नावली अलग-अलग भी होती है। 

उत्तरदाता यदि पढ़े-लिखे न हों, तो लिखित प्रश्नावली काम नहीं आती। उस स्थिति में साक्षात्कार पद्धति का सहारा लिया जाता है। प्रश्नावली के प्रश्न मुख्य रूप से हाँ या नहीं जैसे उत्तर वाले भी हो सकते हैं, और विवरणात्मक उत्तर वाले भी। प्रश्नावली का यह भेद शोध-प्रसंग की समस्याओं के फलक से निर्देशित होता है।

प्रश्नावली तैयार करते समय प्रश्नों की स्पष्टता और विशिष्टता पर शोधार्थी को हमेशा सावधान रहना होता है। भ्रामक प्रश्नों से हमेशा बचना होता है। दोषपूर्ण प्रश्नों के उत्तर से शोध-दिशा किसी द्वन्द्व का शिकार हो जा सकती है। प्रश्नों में अप्रचलित शब्दावली के प्रयोग से बचना इसमें बड़ा सहायक होता है।

लिखित प्रश्नावली का डाक द्वारा उत्तर प्राप्त करने के क्रम में तो प्रश्नों की सरलता और स्पष्टता का विशेष ध्यान रखा जाता है, क्योंकि उस वक्त शोधार्थी उत्तरदाता के पास स्वयं उपस्थित नहीं रहता, जाहिर है कि तब प्रश्न की अस्पष्टता के कारण उत्तरदाता दिग्भ्रान्त हो जाएँगे। ऐसी दशा में उत्तरदाता प्रश्नों का अपेक्षित अर्थ लगाकर उसका सही-सही जवाब दे देंगे--ऐसी अपेक्षा रखना सन्दिग्ध होगा।

प्रश्नों का संक्षिप्त और श्रेणीबद्व होना लक्ष्योन्मुखी जवाब के लिए लाभदायक होता है। संक्षिप्त और श्रेणीबद्व प्रश्न से उत्तरदाता को जवाब देने में सुविधा होती है, कहीं संशय उत्पन्न नहीं होता।

प्रश्नों में शोधार्थी की ओर से किसी प्रकार का ऐसा आग्रह नहीं होना चाहिए जिससे उत्तरदाता किसी तरह प्रभावित होकर प्रभावित उत्तर दें। बेवजह और अप्रासंगिक प्रश्नों से बचना भी जरूरी होता है।

उत्तरदाता के गोपनीय प्रसंगों-धारणाओं से सम्बद्ध प्रश्न नहीं पूछे जाने चाहिए। किसी भी प्रश्न में व्यंग्यात्मक, लांछित, अथवा अभद्र धारणा का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

प्रश्नावली के निर्माण में कागज की कोटि, आकार, लिखावट आदि के सौष्ठव पर भी ध्यान देना एक वाजिब उपक्रम है, ताकि उत्तरदाता उसे देख कर खिन्न न हो उठें। उत्तरदाता की खिन्नता से वांछित उत्तर मिलने की सम्भावना संदिग्ध हो जाती है।

प्रश्नावली तथ्य-संग्रह की एक प्रमुख विधि है। इसमें उत्तरदाता पूछे गए प्रश्नों को स्वयं समझकर जवाब देते हैं। जाहिर है कि प्रश्न उस कोटि के हों, जो एक तरह से उत्तरदाता के ज्ञान के आधार-क्षेत्र को उद्बुद्ध करे, उसकी समझ को विस्तार दे। इसके लिए प्रश्नावली बनाते समय शोधार्थी को सावधान रहना होता है, उन्हें ध्यान रखना होता है कि प्रश्नावलियों की निर्माण-विधि वे इस तरह व्यवस्थित करें कि शोधार्थी की मदद लिए बिना ही उत्तरदाता प्रश्नों को भली-भाँति समझ जाएँ, अपने ज्ञान के आधार-क्षेत्र को उद्बुद्ध कर लें, और पूछे गए प्रश्नों का मुनासिब उत्तर दे दें। स्पष्टतः प्रश्नावली जितनी सुव्यवस्थित होगी, शोध के लिए सामग्री-संकलन उतना ही उपयोगी होगा। वांछित परिणाम पाने के लिए प्रश्नों की उपयुक्तता, तथ्यपरकता और सहजता अत्यावश्यक है।

द्वितीयक सामग्री : लक्षित विषय-प्रसंग के बारे में पहले से ही उपलब्ध अथवा संकलित सामग्री को द्वितीयक सामग्री कहते हैं। इसके अन्तर्गत वे समस्त सामग्रियाँ एवं सूचनाएँ आती हैं जो प्रकाशित या अप्रकाशित रूप में कहीं न कहीं उपलब्ध हैं। लक्षित विषय-प्रसंग से सम्बद्ध सन्दर्भ-ग्रन्थ, सम्बद्ध सरकारी विभागों में उपलब्ध सूचनाएँ आदि इसके उदाहरण हैं। इन्हें सहायक सामग्री अथवा प्रलेखीय स्रोत भी कहा जाता है।

द्वितीयक सामग्री के प्रकाशित स्रोतों में प्रमुख हैं--पुस्तकालयों-संग्रहालयों में उपलब्ध सन्दर्भ-ग्रन्थ, सरकारों के वार्षिक प्रतिवेदन, सर्वेक्षण, योजना-प्रतिवेदन, जनगणना रिपोर्ट, पत्र-पत्रिकाएँ, समाचार-पत्र, पुस्तकें आदि। अप्रकाशित स्रोतों में प्रमुख हैं--हस्तलिखित सामग्री, डायरी, लेख, पाण्डुलिपि, पत्र, विभिन्न संस्थाओं में संकलित अप्रकाशित सामग्री आदि। इसके साथ-साथ गूगल-पुस्तक या सूचना-तन्त्र के वेबलिंक भी इन दिनों बड़े महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

द्वितीयक सामग्री का चुनाव करते समय सामग्री की विश्वसनीयता, उपयुक्तता, एवं पर्याप्तता पर खास तरह की सावधानी रखने की जरूरत होती है।

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