यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 9 मार्च 2021

9 मार्च,बाबासाहब नातू, सरस्वती ताई आप्टे


9 मार्च/जन्म-दिवस


             मानव मन के पारखी बाबासाहब नातू


मध्य भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य हिन्दू संगठनों के लिए आधार भूमि तैयार करने में श्री अनंत शंकर (बाबासाहब) नातू का विशिष्ट स्थान है। उनका जन्म नौ मार्च, 1923 को धार जिले के सरदारपुर नगर में हुआ था। 


उनके पिताजी उन दिनों वहां तहसीलदार थे। प्रारम्भिक शिक्षा उज्जैन में पूरी कर 1943 में ग्वालियर से उन्होंने स्नातक उपाधि प्राप्त की। कई स्थानों पर काम करते हुए 1946 में लिप्टन चाय कम्पनी में उनकी नौकरी लग गयी। इस काम के लिए उन्हें भोपाल में रहना पड़ा। यहां उन्होंने भोपाल के मुसलमान नवाब द्वारा हिन्दुओं पर किये जाने वाले अत्याचार देखे। इससे उनका मन पीड़ा से भर उठा। इसका उत्तर उन्हें केवल संघ कार्य में दिखाई देता था। 


संघ से उनका संपर्क 1936 में अपने बड़े भाई के साथ शाखा जाने पर हो गया था। 1942 में उन्होंने खंडवा से प्रथम वर्ष और फिर हरदा से द्वितीय वर्ष किया। हरदा में ही उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया और नौकरी को लात मार दी। प्रचारक के नाते उन्हें सर्वप्रथम भोपाल ही भेजा गया।


भोपाल के बाद उज्जैन, इंदौर, रतलाम आदि को केन्द्र बनाकर उन्होंने संघ कार्य को गति दी। श्री कुशाभाऊ ठाकरे, हरिभाऊ वाकणकर, मिश्रीलाल तिवारी, दत्ता जी कस्तूरे, राजाभाऊ महाकाल जैसे जीवट के धनी कार्यकर्ता उनके साथी थे। इन सबने गांव-गांव तक शाखाएं पहुंचा दीं। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध के समय संघ की ओर से यह छूट दी गयी थी कि जो प्रचारक घर जाना चाहें, वे जा सकते हैं; पर दृढ़ निश्चयी बाबा साहब ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।


लेकिन उस समय शाखाएं बन्द थीं तथा सब ओर भय व्याप्त था। अतः बाबा साहब ने देवास जिले के सोनकच्छ में एक होटल खोल लिया। इससे कुछ आय होने लगी और यह लोगों से मिलने का एक ठिकाना बन गया। जैसे ही प्रतिबन्ध हटा, वे होटल बन्द कर फिर प्रचारक बन गये। 


जिला, विभाग आदि दायित्वों के बाद 1977 में उन्हें मध्य भारत का प्रान्त प्रचारक बनाया गया। 1983 में सहक्षेत्र प्रचारक तथा 1986 से 92 तक वे क्षेत्र प्रचारक रहे। स्वास्थ्य संबंधी कठिनाइयों से जब प्रवास कठिन हो गया, तो उन्होंने सरकार्यवाह श्री शेषाद्रि जी से आग्रह कर स्वयं को दायित्व मुक्त कर लिया। 


दायित्व मुक्ति के बाद भी वे कार्यक्रमों तथा कार्यकर्ताओं के पारिवारिक आयोजनों में जाते रहे। बाबा साहब मानव मन के अद्भुत पारखी थे। शाखा के साथ ही कार्यकर्ता से मिलना, उसके घर जाना और धैर्यपूर्वक उसके मन की बात सुनना भी उनके प्रवास का महत्वपूर्ण अंग होता था। वे कार्यकर्ता तथा नये व्यक्ति से मिलने एवं कुछ देर की वार्ता से ही उसके मन को समझ लेते थे। इसलिए लोग हंसी में उनकी आंखों को एक्सरे मशीन कहते थे। 


व्यक्तियों को जोड़ने तथा उन्हें उनकी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार यथोचित काम देने से ही संघ के सैकड़ों विविध कार्य एवं हजारों प्रकल्प खड़े हुए हैं। मन की परख के कारण बाबा साहब ने जिसे जो कार्य सौंपा, वह अंततः उस काम में यशस्वी हुआ। उनके सम्पर्क का दायरा अति विशाल था। सैकड़ों कार्यकर्ताओं और उनके पुत्र-पुत्रियों के विवाह के लिए उन्होंने सम्पर्क सेतु का काम किया। वे कार्यकर्ता ही नहीं, तो उसके रिश्तेदारों तक से संबंध बनाकर रखते थे और समय आने पर उनसे भी काम ले लेते थे। 


वृद्धावस्था के बावजूद वे तात्कालिक गतिविधियों के प्रति जागरूक रहते थे तथा मिलने आने वालों को समयानुकूल दिशा निर्देश भी करते थे। इसलिए हर आयु वर्ग वाले उनके पास बैठना पसंद करते थे। लम्बी बीमारी के बाद 15 दिसम्बर, 2008 को उनकी आत्मा अनन्त में विलीन हो गयी।


(संदर्भ : पांचजन्य 28.12.08 एवं देवपुत्र जनवरी 2009)

............................................


9 मार्च/पुण्य-तिथि


       नारी संगठन को समर्पित सरस्वती ताई आप्टे


1925 में हिन्दू संगठन के लिए डा. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य प्रारम्भ किया। संघ की शाखा में पुरुष वर्ग के लोग ही आते थे। उन स्वयंसेवक परिवारों की महिलाएँ एवं लड़कियाँ डा. हेडगेवार जी से कहती थीं कि हिन्दू संगठन के लिए नारी वर्ग का भी योगदान लिया जाना चाहिए। 


डा. हेडगेवार भी यह चाहते तो थे; पर शाखा में लड़के एवं लड़कियाँ एक साथ खेलें, यह उन्हें व्यावहारिक नहीं लगता था। इसलिए वे चाहते थे कि यदि कोई महिला आगे बढ़कर नारी वर्ग के लिए अलग संगठन चलाये, तभी ठीक होगा। उनकी इच्छा पूरी हुई और 1936 में श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर (मौसी जी) ने ‘राष्ट्र सेविका समिति’ के नाम से अलग संगठन बनाया। 


इस संगठन की कार्यप्रणाली लगभग संघ जैसी ही थी। आगे चलकर श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर समिति की प्रमुख संचालिका बनीं। 1938 में पहली बार ताई आप्टे की भेंट श्रीमती केलकर से हुई थी। इस भेंट में दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया। मौसी जी से मिलकर ताई आप्टे के जीवन का लक्ष्य निश्चित हो गया। दोनों ने मिलकर राष्ट्र सेविका समिति के काम को व्यापकता एवं एक मजबूत आधार प्रदान किया।


अगले 4-5 साल में ही महाराष्ट्र के प्रायः प्रत्येक जिले में समिति की शाखा खुल गयी। 1945 में समिति का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। ताई आप्टे की सादगी, संगठन क्षमता, कार्यशैली एवं वक्तृत्व कौशल को देखकर मौसी जी ने इस सम्मेलन में उन्हें प्रमुख कार्यवाहिका की जिम्मेदारी दी। जब तक शरीर में शक्ति रही, ताई आप्टे ने इसे भरपूर निभाया।


उन दिनों देश की स्थिति बहुत खतरनाक थी। कांग्रेस के नेता विभाजन के लिए मन बना चुके थे। वे जैसे भी हो सत्ता प्राप्त करना चाहते थे। देश में हर ओर मुस्लिम आतंक का नंगा खेल हो रहा था। इनकी शिकार प्रायः हिन्दू युवतियाँ ही होती थीं। देश का पश्चिमी एवं पूर्वी भाग इनसे सर्वाधिक प्रभावित था। आगे चलकर यही भाग पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान बना।


आजादी एवं विभाजन की वेला से कुछ समय पूर्व सिन्ध के हैदराबाद नगर से एक सेविका जेठी देवानी का मार्मिक पत्र मौसी जी को मिला। वह इस कठिन परिस्थिति में उनसे सहयोग चाहती थी। वह समय बहुत खतरनाक था। महिलाओं के लिए प्रवास करना बहुत ही कठिन था; पर सेविका की पुकार पर मौसी जी चुप न रह सकीं। वे सारा कार्य ताई आप्टे को सौंपकर चल दीं। वहाँ उन्होंने सेविकाओं को अन्तिम समय तक डटे रहने और किसी भी कीमत पर अपने सतीत्व की रक्षा का सन्देश दिया।


1948 में गांधी जी की हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। हजारों कार्यकर्ता जेलों में ठूँस दिये गये। ऐसे में उन परिवारों में महिलाओं को धैर्य बँधाने का काम राष्ट्र सेविका समिति ने किया। 1962 में चीन के आक्रमण के समय समिति ने घर-घर जाकर पैसा एकत्र किया और उसे रक्षामन्त्री श्री चह्नाण को भंेट किया। 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण के समय अनेक रेल स्टेशनों पर फौजी जवानों के लिए चाय एवं भोजन की व्यवस्था की।


सरस्वती ताई आप्टे इन सब कार्यों की सूत्रधार थीं। उन्होंने संगठन की लाखों सेविकाओं को यह सिखाया कि गृहस्थी के साथ भी देशसेवा कैसे की जा सकती है। 1909 में जन्मी ताई आप्टे ने सक्रिय जीवन बिताते हुए नौ मार्च, 1994 को प्रातः 4.30 बजे अन्तिम साँस ली।

 (संदर्भ : पांचजन्य/आर्गनाइजर 1.9.2013 एवं तत्कालीन पत्र)

1 टिप्पणी: