13 मार्च/जन्म-दिवस
अटल जी को स्वयंसेवक बनाने वाले नारायण राव तर्टे
अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बनकर अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सेवा हेतु समर्पित करने वाले कार्यकर्ताओं की एक लम्बी मालिका है। 13 मार्च, 1913 को अकोला (महाराष्ट्र) में जन्मे श्री नारायण राव तर्टे इस मालिका के एक सुवासित पुष्प थे।
नारायण राव के पिता श्री विश्वनाथ तर्टे की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इस कारण नारायण राव किसी तरह मैट्रिक तक पढ़ सके। इसी बीच उनका सम्पर्क संघ से हुआ। नारायण राव की इच्छा थी कि वे भी संघ के प्रचारक बनें; पर अकोला के कार्यकर्ताओं ने यह कहकर उन्हें हतोत्साहित किया कि उनकी शिक्षा बहुत कम है। पिताजी के देहान्त के बाद नारायण राव से रहा नहीं गया और वे नागपुर आकर संघ के संस्थापक डा0 हेडगेवार से मिले।
उन दिनों प्रचारक प्रायः उच्च शिक्षा प्राप्त होते थे; पर डा. हेडगेवार ने जब नारायण राव के मन में संघ कार्य की लगन देखी, तो वे उन्हें प्रचारक बनाने के लिए तैयार हो गये। नारायण राव का मन खुशी से झूम उठा। डा. हेडगेवार ने उन्हें ग्वालियर जाकर संघ शाखा खोलने को कहा।
ग्वालियर के लिए प्रस्थान करते समय डा. जी ने उन्हें अपने हाथ से लिखी संघ की प्रार्थना, चार रुपये, समर्थ स्वामी रामदास कृत ‘दासबोध’ तथा लोकमान्य तिलक द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य’ नामक पुस्तक दी। इस अनमोल पूँजी के साथ नारायण राव ग्वालियर आ गये।
ग्वालियर उनके लिए नितान्त अपरिचित नगर था। वहाँ उनके प्रारम्भिक दिन किन कठिनाइयों में बीते, इसकी चर्चा कभी नारायण राव ने नहीं की। कितने दिन वे भूखे रहे और कितनी रात खुले मैदान में या स्टेशन पर सोये, कहना कठिन है; पर अपने परिश्रम से उन्होंने ग्वालियर में संघ का बीज बो दिया, जो कुछ ही समय में विशाल पेड़ बनकर लहलहाने लगा।
उनके प्रयास से केवल नगर ही नहीं, तो निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्र में भी अनेक शाखाएँ खुल गयीं। इसके बाद उन्होंने भिण्ड, मुरैना, शिवपुरी, गुना जैसे नगरों में प्रवास किया और वहाँ भी शाखाओं की स्थापना की।उन दिनों ग्वालियर की शाखा पर जो स्वयंसेवक आते थे, उनमें से एक थे अटल बिहारी वाजपेयी, जो आगे चलकर सांसद, विदेश मंत्री और फिर भारत के प्रधानमन्त्री बने। उन्होंने अपने सामाजिक जीवन पर नारायण राव तर्टे के प्रभाव को स्पष्ट रूप से कई बार स्वीकार किया है।
प्रधानमन्त्री बनने के बाद जब वे नागपुर आये, तो संघ कार्यालय आकर उन्होंने नारायण राव से आशीर्वाद लिया। हिन्दुस्थान समाचार के संस्थापक तथा विश्व हिन्दू परिषद के संस्थापक महामन्त्री दादासाहब आप्टे को भी मुम्बई में शाखा पर लाने का श्रेय नारायण राव को ही है।
कुछ समय नारायण राव ने उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में भी कार्य किया। जब भारतीय भाषाओं में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ नामक समाचार संस्था की स्थापना की गयी, तो नारायण राव को उस काम में लगाया गया।
उन्हें जो भी काम संगठन की ओर से दिया गया, उसे पूरे मनोयोग से उन्होंने किया। अधिक अवस्था होने पर जब उनका शरीर परिश्रम करने योग्य नहीं रहा, तो वे नागपुर में महाल के संघ कार्यालय में रहने लगे।
महाल में ही वह ‘मोहिते का बाड़ा’ भी है, जहाँ डा. हेडगेवार ने पहली शाखा लगायी थी। अपने अन्तिम समय तक नारायण राव उसी शाखा में जाते रहे। एक अगस्त, 2005 को उस महान कर्मयोगी ने अपने सक्रिय और सार्थक जीवन को विराम दे दिया।
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13 मार्च/जन्म-दिवस
सेवाभावी डा. रामेश्वर दयाल पुरंग
दयाल पुरंग
डा. रामेश्वर दयाल पुरंग का जन्म 13 मार्च, 1918 को ग्राम आदमपुर (जिला जालंधर, पंजाब) में हुआ था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.बी.बी.एस. करते समय उन्होंने संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के पहली बार दर्शन किये। वे उन दिनों वहां शाखा विस्तार के लिए आये हुए थे। युवा रामेश्वर दयाल ने जब उनके प्रखर विचार सुने, तो वे सदा के लिए संघ से जुड़ गये।
1940 में नागपुर के जिस संघ शिक्षा वर्ग में डा. हेडगेवार ने अपने जीवन का अंतिम भाषण दिया था, उसमें रामेश्वर दयाल जी भी उपस्थित थे। संघ कार्य विस्तार के लिए डा. हेडगेवार के मन की तड़प उस भाषण में प्रकट हुई थी। इसका डा. पुरंग के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने जीवन भर संघ कार्य करने का निश्चय कर लिया।
1941 में शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया। उन दिनों वहां आचार्य गिरिराज किशोर जी संघ के प्रचारक होकर आये थे। समवयस्क होने के कारण दोनों में अच्छी मित्रता हो गयी। डा. पुरंग चिकित्सालय के बाद का अपना पूरा समय शाखा के विस्तार में लगाने लगे। इससे मैनपुरी जिले में सुदूर गांवों तक शाखाओं का विस्तार हो गया।
डा. पुरंग ने चिकित्सा कार्य को केवल धनोपार्जन का साधन नहीं माना। उनके मन में समाजसेवा की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। इस कारण उनकी ख्याति तेजी से सब ओर फैल गयी। दूर-दूर से लोग उनसे चिकित्सा कराने के लिए आते थे। संघ कार्य में सक्रियता के कारण उन्हें विभिन्न दायित्व दिये गये। लम्बे समय तक वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रान्त संघचालक रहे।
डा. पुरंग गोसेवा एवं गोरक्षा के प्रबल पक्षधर थे। 1966 में गोहत्या बंद करने की मांग को लेकर चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वे रात में गांवों में जाते थे तथा लोगों को जगा-जगाकर हस्ताक्षर कराते थे। 1967 में जब गोरक्षा के लिए सत्याग्रह हुआ, तब वे जेल भी गये। 1975 में जब देश में आपातकाल थोपकर संघ पर प्रतिबंध लगाया गया, तो उन्होंने झुकने की बजाय सहर्ष कारावास में जाना स्वीकार किया।
डा. पुरंग ने मैनपुरी जिले में पूर्व सैनिकों का एक अच्छा संगठन खड़ा किया। उन्होंने देखा कि इनमें जहां एक ओर देशभक्ति तथा अनुशासन भरपूर होता है, वहां छुआछूत और खानपान में भेदभाव भी नहीं होता। उन्हें लगा कि ऐसे लोग समाज और संगठन के लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं।
आगे चलकर संघ ने अखिल भारतीय स्तर पर ‘पूर्व सैनिक सेवा परिषद’ नामक संगठन बनाया। इसके पीछे भी प्रेरणा डा. पुरंग की ही थी। आज तो इस संगठन का विस्तार पूरे देश में हो गया है। यह पूर्व सैनिकों को संगठित कर बलिदानी सैनिकों के परिवार तथा गांवों के विकास के लिए काम कर रहा है।
नब्बे के दशक में जब ‘श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन’ ने तेजी पकड़ी, तब वे ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के पश्चिमांचल क्षेत्र के अध्यक्ष थे। अतः उन्होंने सहर्ष एक बार फिर जेल-यात्रा की। इसके बाद विश्व हिन्दू परिषद के उपाध्यक्ष तथा गोसेवा समिति के अध्यक्ष के नाते भी उन्होंने काम किया।
मैनपुरी की हर सामाजिक गतिविधि में डा. पुरंग की सक्रिय भूमिका रहती थी। वे मैनपुरी के सरस्वती शिशु मंदिर के संस्थापक तथा आचार्य रामरतन पुरंग सरस्वती शिशु मंदिर के संरक्षक थे। 12 मार्च, 2004 को वृद्धावस्था के कारण दिल्ली में अपने पुत्र के निवास पर उनका देहांत हुआ।
(संदर्भ : हिन्दू विश्व, अपै्रल द्वितीय/आर्गनाइजर 4.4.2004)
Nice
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