14 मार्च/बलिदान-दिवस
पेशावर पर भगवा लहराया
पेशावर पर बलपूर्वक कब्जा कर अफगानी अजीम खाँ की सेनाएँ नौशेहरा मैदान तक आ चुकी थीं। यह सुनकर महाराजा रणजीत सिंह ने हरिसिंह नलवा एवं दीवान कृपाराम के नेतृत्व में उनका मुकाबला करने को स्वराजी सैनिकों के जत्थे खैराबाद भेज दिये। महाराजा के साथ बाबा फूलासिंह अटक नदी के किनारे डट गये; पर शत्रुओं ने अटक पर बना एकमात्र पुल बारूद से उड़ा दिया। इससे दोनों समूहों का आपसी सम्पर्क कट गया।
रणजीत सिंह ने नदी पर नावों का पुल बनाने का आदेश दिया। तभी एक गुप्तचर ने समाचार दिया कि अटक पार वाले दल शत्रुओं से घिर गये हैं। उन्हें यदि शीघ्र सहायता नहीं मिली, तो सबकी जान जा सकती है। रणजीत सिंह ने चिन्तित नजरों से बाबा फूलासिंह की ओर देखा। बाबा ने संकेत समझकर अपना सिर झुका दिया। फिर घोड़े पर बैठे-बैठे ही उन्होंने हाथ को ऊँचा उठाकर अपने सैनिकों को आगे बढ़ने का आदेश दिया।
आदेश पाकर 500 निहंग साथियों ने तेज बहती नदी में घोड़े उतार दिये। एक ओर नदी की विकराल धारा थी, तो दूसरी ओर शेर जैसे कलेजे वाले साहसी वीर। पानी के जहाज की तरह धाराओं को चीरकर वे अफगानों पर टूट पड़े। शत्रु सैनिक सिर पर पाँव रखकर भागे। जहाँगीरा का दुर्ग भी सिक्ख सैनिकों के पास आ गया। यह सुनकर अजीम खाँ बहुत आगबबूला हुआ। उसने सैनिकों को बहुत भला-बुरा कहा। कुरान की कसम दिलाकर फिर से लड़ने और इस अपमान का बदला लेने को तैयार किया।
अफगान सेनापति मुहम्मद खान लुण्डा ने तीस हजार सैनिकों के साथ तरकी की पहाडि़यों पर मोर्चा बाँधा। रणजीत सिंह ने फिर से बाबा फूलासिंह के नेतृत्व में 1,500 सैनिक भेज दिये। लेकिन फूलासिंह जरा भी चिन्तित नहीं हुए।
उन्होंने सैनिकों को ललकारा - गुरू गोविन्द सिंह ने चिडि़यों से बाज लड़ाने की बात कही थी। आज उसी का अवसर आया है। मत भूलो कि एक-एक स्वराजी सैनिक सवा लाख के बराबर होता है। हमें भगवा फहराकर स्वराज्य की सीमाएँ पेशावर तक पहुँचानी हैं।
फूलासिंह की घनगर्जना से सैनिकों का खून गरम हो गया और उनमें उत्साह की लहर दौड़ गयी। घनघोर संग्राम शुरू हो गया। तलवारें आपस में टकराने लगीं। निहंगों के जौहर देखते ही बनते थे। शीघ्र ही महाराजा ने एक और बड़ी टुकड़ी इनकी सहायता के लिए भेज दी। इससे सिक्ख सैनिकों का हौसला बढ़ गया। वे ‘बोले सो निहाल, सत् श्री अकाल’ कहकर शत्रुओं पर टूट पड़े। अफगान सैनिक ‘या खुदा, या खुदा’ कहकर भागने लगे।
वह 14 मार्च, 1823 का दिन था। बाबा फूलासिंह की तलवार मुसलमानों पर कहर ढा रही थी। इसी बीच उन्हें एक गोली आ लगी। कुछ सैनिक उनकी सहायता को आगे बढ़े; पर बाबा चिल्लाये - मेरी चिन्ता मत करो। अपना कत्र्तव्य निभाओ। याद है न, हमें पेशावर पर भगवा झण्डा फहराना है।
इसी समय एक और गोली ने उनके घोड़े को भी गिरा दिया। अब बाबा हाथी पर चढ़ गये। तभी एक अफगान सैनिक ने एक साथ कई गोलियाँ बाबा की ओर चलायीं। इस हमले को वे नहीं झेल पाये। बाबा के बलिदान होते ही सिक्ख सैनिकों ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया। अफगान सेना पीछे हटने लगी। कुछ समय बाद अन्ततः पेशावर पर भगवा फहरा ही गया।
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14 मार्च/जन्म-दिवस
वैदिक गणित के संन्यासी प्रवक्ता
संन्यासी को देखकर लोगों के मन में उनके त्याग तथा अध्यात्म के प्रति श्रद्धा जाग्रत होती है। कई बार लोग इन्हें कम पढ़ा-लिखा समझते हैं; पर इनमें से अनेक उच्च शिक्षा विभूषित होते हैं। आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक श्री गोवर्धन पीठ (जगन्नाथ पुरी) के जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्य श्री भारती कृष्णतीर्थ जी ऐसी ही विभूति थे।
14 मार्च, 1884 को तिन्निवेलि, मद्रास (तमिलनाडु) में तहसीलदार श्री पी. नृसिंह शास्त्री के घर जन्मे इस बालक का नाम वेंकटरमन रखा गया। यह पूरा परिवार बहुत शिक्षित और प्रतिष्ठित था। वेंकटरमन के चाचा श्री चंद्रशेखर शास्त्री महाराजा कालिज, विजय नगर में प्राचार्य थे। इनके परदादा श्री रंगनाथ शास्त्री मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके थे।
कुशाग्र बुद्धि के स्वामी वेंकटरमन सदा कक्षा में प्रथम आते थे। गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र तथा भाषा शास्त्र में उनकी विशेष रुचि थी। धाराप्रवाह संस्कृत बोलने के कारण 15 वर्ष की किशोरावस्था में उन्हें मद्रास संस्कृत संस्थान ने ‘सरस्वती’ जैसी उच्च उपाधि से विभूषित किया। 1903 में उन्होंने अमरीकन कालिज ऑफ़ साइन्स, रोचेस्टर के मुम्बई केन्द्र से एम.ए. किया।
1904 में केवल 20 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक साथ सात विषयों (संस्कृत, दर्शन, अंग्रेजी, गणित, इतिहास, भौतिकी एवं खगोल) में एम.ए की परीक्षा उच्चतम सम्मान के साथ उत्तीर्ण कीं। यह कीर्तिमान सम्भवतः आज तक अखंडित है।
समाज सेवा की ओर रुचि होने के कारण उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले के साथ राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की समस्याओं के लिए काम किया। 1908 में वे राजमहेन्द्रि में नवीन कालिज के प्राचार्य बने; पर उनका अधिक रुझान अध्यात्म की ओर था। अतः 1911 में वे शृंगेरी पीठ के पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य श्री नृसिंह भारती के पास मैसूर पहुँच गये और आठ साल तक वेदान्त दर्शन का गहन अध्ययन किया।
इसके साथ उन्होंने ध्यान, योग एवं ब्रह्म साधना का भी भरपूर अभ्यास किया। इस दौरान वे स्थानीय विद्यालयों और आश्रमों में संस्कृत एवं दर्शनशास्त्र भी पढ़ाते रहेे। अमलनेर के शंकर दर्शन संस्थान में आद्य शंकराचार्य के दर्शन पर दिये गये उनके 16 भाषण बहुत प्रसिद्ध हैं। मुंबई, पुणे और खानदेश के कई महाविद्यालयों में उन्होंने अतिथि प्राध्यापक के नाते भी व्याख्यान दिये।
4 जुलाई, 1919 को शारदा पीठ के शंकराचार्य त्रिविक्रम तीर्थ जी ने उन्हें काशी में संन्यास की दीक्षा देकर उनका नाम भारती कृष्ण तीर्थ रखा। 1921 में उन्हें शारदापीठ के शंकराचार्य पद पर विभूषित किया गया। 1925 में जब गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य श्री मधुसूदन तीर्थ का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया, तो उन्होंने इस पीठ का कार्यभार भी श्री भारती को ही सौंप दिया।
1953 में उन्होंने नागपुर में ‘विश्व पुनर्निमाण संघ’ की स्थापना की। वे भारत से बाहर जाने वाले पहले शंकराचार्य थे। 1958 में अमरीका, ब्रिटेन कैलिफोर्निया आदि देशों के रेडियो, दूरदर्शन, चर्च एवं महाविद्यालयों में उनके भाषण हुए।
स्वामी जी ने अथर्ववेद में छिपे गणित के 16 सूत्र खोज निकाले, जिनसे विशाल गणनाएँ संगणक से भी जल्दी हो जाती हैं। उन्होंने इन पर 16 ग्रन्थ लिखे, जो 1956 में हुई एक अग्नि दुर्घटना में जल गये। तब तक उनकी आंखें पूरी तरह खराब हो चुकी थीं; लेकिन उन्होंने स्मृति के आधार पर केवल डेढ़ माह में उन सूत्रों की संक्षिप्त व्याख्या कर नई पुस्तक ‘वैदिक गणित’ लिखी, जो अब उपलब्ध है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने धर्म, विज्ञान, विश्व शांति आदि विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं। 1959 में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और 2 फरवरी, 1960 को मुंबई में उन्होंने शरीर छोड़ दिया।
(संदर्भ : पांचजन्य 1.12.2002 एवं विकीपीडिया)
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14 मार्च/जन्म-तिथि
सर्वस्व समर्पण के प्रतीक बाबू पंढरीराव कृदत्त
राजनीति का मोह छोड़ना आसान नहीं है; पर श्री गुरुजी के संकेत पर उसे छोड़कर फिर से संघ की जिम्मेदारी लेकर काम करने वाले बाबू पंढरीराव कृदत्त का जन्म 14 मार्च 1922 को धमतरी के मराठपारा में गुलाबराव बाबूराव कृदत्त के घर हुआ था। 1935 में अपनी बाल्यवस्था में ही वे शाखा जाने लगे थे। 1938 में नागपुर संघ शिक्षा वर्ग में उन्होंने पूज्य डा0 हेडगेवार के दर्शन किये और उनकी प्रेरक वाणी सुनी। उसके बाद वे संघ से एकरूप हो गये।
1939 में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद भी उनके जीवन की प्राथमिकता संघ कार्य ही थी। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर उन्हें बंदी बनाकर जेल भेज दिया गया। लौटकर वे राजनीति में सक्रिय हो गये। इसकी प्रेरणा उन्हें तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री भाऊसाहब भुस्कुटे से मिली।
1952 में हुए पहले चुनाव में जनसंघ ने उन्हें धमतरी विधानसभा का प्रत्याशी बनाया। वे भारी मतों से विजयी हुए। इसके बाद 1957 और 1967 के चुनाव में भी उन्होंने कीर्तिमान बनाया। वे विरोधी दल के उपनेता चुने गये। लेकिन 1969 में सरसंघचालक श्री गुरुजी के संकेत पर वे राजनीति छोड़कर फिर से संघ के काम में लग गये। रायपुर में हुए एक संभागीय शिविर में श्री गुरुजी ने उन्हें रायपुर विभाग कार्यवाह का दायित्व दिया। वे रायपुर विभाग के सहसंघचालक और फिर छत्तीसगढ़ प्रांत के संघचालक भी रहे।
पंढरी बाबू का सारा जीवन समाज सेवा को समर्पित था। धमतरी क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार में उनका योगदान अविस्मरणीय है। धमतरी जिले में चल रहे सरस्वती शिशु मंदिरों की स्थापना और विस्तार में वे सर्वाधिक सक्रिय रहे। 1947 में धमतरी में सरकारी हाईस्कूल बनवाने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने श्री गायत्री संस्कृत विद्यालय के लिए तेलिन सक्ति गांव में 55 एकड़ भूमि और एक पक्का भवन दान कर दिया।
दुखी व पीडि़त जनों की सेवा के लिए पंढरी बाबू सदा तत्पर रहा करते थे। धमतरी में कुष्ठ रोगियों को व्यवस्थित रूप से बसाने के लिए उन्होंने रानी बगीचा में दो एकड़ भूमि दान दी। पंढरी बाबू ने अपनी 42 एकड़ भूमि पूज्य श्री गुरुजी को समर्पित कर दी। श्री गुरुजी ने उसे भारतीय कुष्ठ निवारक संघ को देकर बाबू जी को उसका संस्थापक सदस्य बना दिया।
पंढरी बाबू रामायण को विश्व की अनुपम कृति मानते थे। मानस के जीवन मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अहर्निश साधना की। वे मतान्तरण के विरोधी थे; पर परावर्तन को घर वापसी मानते थे। छत्तीसगढ़ में परावर्तन के काम को भी उन्होंने गति दी। आज तो यह अभियान देश भर में चल रहा है।
अपने देहांत से एक दिन पूर्व अस्पताल के बिस्तर पर से ही देश की संस्कृति और सभ्यता के विनाश और राष्ट्र पर आसन्न संकंटों की चिंता करते हुए 26 जनवरी के अवसर पर प्रकाशनार्थ एक पत्रक को उन्होंने अपने हस्ताक्षर से जारी किया था। यह पत्रक युवकों को सम्बोधित किया गया था। उन्होंने संगठित युवा शक्ति को ही पुराणों में उल्लिखित 'कल्कि अवतार' बताया।
इस संदेश में अपने त्याग और तपस्या के बल पर उत्थान के मार्ग पर चलकर देश का गौरव बढ़ाने वाली भारत की महान आत्माओं को प्रणाम करते हुए भारत के पूर्व वैभव, वर्तमान समस्याओं और आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसे संकटों के बारे में लिखा था। इस प्रकार huiअंतिम समय वे सतत सक्रिय व जागरूक थे।
20 जनवरी, 2009 को 88 वर्ष की सुदीर्घ आयु में बाबू पंढरीराव कृदत्त का शरीरांत हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य)
Nice
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