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बुधवार, 3 मार्च 2021

4 मार्च क्रान्तिकारी का मानव कवच तोसिको बोस,गायक रामनरेश त्रिपाठी

 4 मार्च/पुण्य-तिथि 

क्रान्तिकारी का मानव कवच तोसिको बोस


तोसिको बोस का नाम भारतीय क्रान्तिकारी इतिहास में अल्पज्ञात है। अपनी जन्मभूमि जापान में वे केवल 28 वर्ष तक ही जीवित रहीं। फिर भी सावित्री तुल्य इस सती नारी का भारतीय स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाने में अनुपम योगदान रहा। 


रासबिहारी बोस महान क्रान्तिकारी थे। 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में तत्कालीन वायसराय के जुलूस पर बम फंेक कर उसे यमलोक पहुँचाने का प्रयास तो हुआ; पर वह पूर्णतः सफल नहीं हो पाया। उस योजना में रासबिहारी बोस की बड़ी भूमिका थी। 


अतः अंग्रेज शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए दूर-दूर तक जाल बिछा दिया। उन्हें पकड़वाने वाले के लिए एक लाख रु0 का पुरस्कार भी घोषित किया गया। यदि वे पकड़े जाते, तो मृत्युदण्ड मिलना निश्चित था। अतः सब साथियों के परामर्श से वे 1915 के मई मास में नाम और वेष बदलकर जापान चले गये। 


उन दिनों जापान और ब्रिटेन में एक सन्धि थी, जिसके अन्तर्गत भारत का कोई अपराधी यदि जापान में छिपा हो, तो उसे लाकर भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है; पर यदि वह जापान का नागरिक है, तो उसे नहीं लाया जा सकता था। 


एक अन्य कानून के अनुसार पति-पत्नी में से कोई एक यदि जापानी है, तो दूसरे को स्वतः नागरिकता मिल जाती थी। इसलिए रासबिहारी के मित्रों ने विचार किया कि यदि उनका विवाह किसी जापानी कन्या से करा दिया जाये, तो प्रत्यार्पण का यह संकट टल जाएगा। 


रासबिहारी बोस के एक जापानी मित्र आइजो सोमा और उनकी पत्नी कोक्को सोमा ने उन्हें अपने होटल से लगे घर में छिपाकर रखा। इस दौरान उनका परिचय सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से हुआ। उसे जब भारतीयों पर ब्रिटिष शासन द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का पता लगा, तो उसका हृदय आन्दोलित हो उठा। 


रासबिहारी ने उसे क्रान्तिकारियों द्वारा जान पर खेलकर किये जा रहे कार्यों की जानकारी दी। इससे उसके मन में आजादी के इन दीवानों के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। अन्ततः उसने स्वयं ही रासबिहारी बोस से विवाह कर उनकी मानव कवच बनने का निर्णय ले लिया। इतना ही नहीं, उसने अज्ञातवास में भी रासबिहारी का साथ देने का वचन दिया। 


तोसिको के माता-पिता के लिए यह निर्णय स्तब्धकारी था, फिर भी उन्होंने बेटी की इच्छा का सम्मान किया। नौ जुलाई, 1918 को रासबिहारी बोस एवं तोसिको का विवाह गुपचुप रूप से सम्पन्न हो गया। इससे रासबिहारी को जापान की नागरिकता मिल गयी। अब वे खुलकर काम कर सकते थे। 


उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर दक्षिण पूर्व एषिया में रह रहे भारतीयों को संगठित किया और वहाँ से साधन जुटाकर भारत में क्रान्तिकारियों के पास भेजे। उन्होंने आसन्न द्वितीय विष्व युद्ध के वातावरण का लाभ उठाकर आजाद हिन्द फौज के गठन में बड़ी भूमिका निभायी।


दो जुलाई, 1923 को रासबिहारी को जापान में रहते हुए सात वर्ष पूरे हो गये। इससे उन्हें स्वतन्त्र रूप से वहाँ की नागरिकता मिल गयी; पर इस गुप्त और अज्ञातवास के कष्टपूर्ण जीवन ने तोसिको को तपेदिक (टी.बी) का रोगी बना दिया। उन दिनों यह असाध्य रोग था। तोसिको मुक्त वातावरण में दो साल भी पति के साथ ठीक से नहीं बिता सकी। चार मार्च, 1925 को मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में वे इस संसार से विदा हो गयीं।

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4 मार्च/जन्म-दिवस


राष्ट्रीय चेतना के अमर गायक रामनरेश त्रिपाठी


उत्तर भारत के अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों में एक प्रार्थना बोली जाती है -  


हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिये,

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।

लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें,

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बनें।।


यह प्रार्थना एक समय इतनी लोकप्रिय थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के बाद जब शाखाएँ प्रारम्भ हुईं, तो उस समय जो प्रार्थना बोली जाती थी, उसमें भी इसके अंश लिये गये थे। 


हे गुरो श्री रामदूता शील हमको दीजिये,

शीघ्र सारे सद्गुणों से पूर्ण हिन्दू कीजिये।

लीजिये हमको शरण में रामपंथी हम बनें,

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बनें।।


यह प्रार्थना संघ की शाखाओं पर 1940 तक चलती रही। 1940 में सिन्दी बैठक में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय हुए। उनके अनुसार इसके बदले संस्कृत की प्रार्थना नमस्ते सदा वत्सले... को स्थान मिला, जो आज भी बोली जाती है।


इस प्रार्थना के लेखक श्री रामनरेश त्रिपाठी का जन्म 4 मार्च, 1889 को ग्राम कोइरीपुर (जौनपुर, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। वे कुछ समय पट्टी (प्रतापगढ़) तथा फिर कक्षा नौ तक जौनपुर में पढ़े। इसके बाद वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार तथा समाज सेवा में लग गये। उन दिनों स्वतन्त्रता का आन्दोलन चल रहा था, वे उसमें कूद पड़े और आगरा जेल में बन्दी बना लिये गये।


इस किसान आन्दोलन के समय सिगरामऊ के राजा हरपाल सिंह ने उन पर मानहानि का मुकदमा ठोक दिया। इससे उनका मन टूट गया और वे अपना गृह जनपद छोड़कर दियरा राज्य (जिला सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश) में चले आये। वहाँ के प्रबन्धक कुँवर कौशलेन्द्र प्रताप ने उनको रेलवे स्टेशन के पास जगह दिलवा दी। इस प्रकार 1930 ई0 में उनका निवास ‘आनन्द निकेतन’ निर्मित हुआ। 


यहाँ उन्होंने भरपूर साहित्य साधना की तथा ग्राम्य लोकगीतों का संग्रह ‘कविता कौमुदी’ कई भागों में प्रकाशित कराया। उनकी रचनाओं में देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इससे जनजागरण में उनका भरपूर उपयोग हुआ। उनके द्वारा निकाला गया ‘वानर’ अपने समय का सर्वश्रेष्ठ बाल मासिक था।


मधुमेह से पीडि़त हो जाने से वे अधिक समय तक यहाँ नहीं रह पाये। साहित्यकारों की गुटबाजी ने भी उनको बहुत मानसिक कष्ट दिये। अतः 1950 में वे यह स्थान छोड़कर प्रयाग चले गये। इसके बाद का उनका समय वहीं बीता। प्रयाग उस समय हिन्दी साहित्यकारों का गढ़ था। श्री रामनरेश त्रिपाठी के सभी से प्रेम सम्बन्ध बन गये। ‘हिन्दी समिति, प्रयाग’ के वे संस्थापक थे।


जनवरी, 1962 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की स्वर्ण जयन्ती मनायी गयी। घोर शीत, कोहरे एवं वर्षा के बीच काफी अस्वस्थ होते हुए भी वे उसमें गये। इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और 16 जनवरी, 1962 को पड़े दिल के दौरे से उनका प्राणान्त हो गया। 


उनकी शव यात्रा में प्रयाग के सभी बड़े साहित्यकार सम्मिलित हुए। श्री रामनरेश त्रिपाठी भले ही अब न हों; पर कविता विनोद, बाल भारती, चयनिका, हनुमान चरित, मिलन, पथिक, स्वप्न आदि काव्य रचनाओं द्वारा वे हिन्दी साहित्याकाश में सदा चमकते रहेंगे।


उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्रीपति मिश्र ने अपने काल में सुल्तानपुर में त्रिपाठी जी के नाम पर एक भव्य सभागार का निर्माण कराया।

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