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मंगलवार, 23 मार्च 2021

23 मार्च/पुण्य-तिथि सर्वप्रिय प्रचारक रतन भट्टाचार्य

 23 मार्च/पुण्य-तिथि


सर्वप्रिय प्रचारक रतन भट्टाचार्य


रतन जी के नाम से प्रसिद्ध श्री विश्वरंजन भट्टाचार्य का जन्म 1927 में दिल्ली में हुआ था। उनके पिता श्री सुरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य तथा माता श्रीमती इन्दुबाला देवी थीं। पांच भाइयों वाले परिवार में रतन जी दूसरे नंबर पर थे। वे लोग मुर्शिदाबाद (जिला खागड़ा, बंगाल) के मूल निवासी थे; पर उनके पिताजी केन्द्र सरकार के लेखा विभाग में नौकरी मिलने पर दिल्ली आ गये।  


दिल्ली में उन दिनों संघ का काम मंदिर मार्ग स्थित हिन्दू महासभा भवन से चलता था। श्री सुरेन्द्रनाथ भी वहीं रणजीत प्लेस में रहते थे। संघ को न जानने के कारण माताजी शाखा जाने से रतन जी को रोकती थीं। श्री वसंत राव ओक तथा नारायण जी प्रायः उन्हें बुलाने आते थे। एक बार मां ने गुस्से में कहा कि मेरे पांच लड़के हैं। जाओ, मैं एक लड़का देश और धर्म के लिए देती हूं। इसके कुछ समय बाद 14 वर्ष की अवस्था में रतन जी घर छोड़कर संघ कार्यालय में ही रहने लगे। यहां रहकर उन्होंने मैट्रिक तथा इंटर किया। 


फिर प्रांत प्रचारक वसंतराव ओक ने उन्हें बरेली भेज दिया। उन दिनों सर्वत्र विभाजन की चर्चा चल रही थी। ऐसे माहौल में रतन जी ने बरेली कॉलिज से बी.ए. किया। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लग गया। उन्होंने बरेली में सत्याग्रह का संचालन किया और फिर स्वयं भी जेल गये। प्रतिबंध हटने पर संघ के प्रांतों की पुनर्रचना हुई और रतन जी उत्तर प्रदेश में ही रह गये। इसके बाद उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः उ.प्र. ही रहा। 


साठ के दशक में उन्हें कोलकाता भेजा गया। उन दिनों पूर्वी पाकिस्तान से उत्पीड़ित हिन्दू बड़ी संख्या में भारत आ रहे थे। रतन जी इन शरणार्थियों की सेवा में लग गये। वे कई बार ढाका तक भी गये। 1971 में जब भारत ने युद्ध छेड़ दिया, तो वे ‘मुक्ति वाहिनी’ के साथ काफी अंदर तक गये। पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत के सम्मुख समर्पण के समय वे वहीं उपस्थित थे।


कोलकाता में एक बार उन्हें हृदय का भीषण दौरा पड़ा। अतः वे स्वास्थ्य लाभ के लिए नौ मास दिल्ली में छोटे भाई गोपीरंजन के घर रहे। ठीक होकर वे फिर बंगाल चले गये; पर वहां फिर दौरा पड़ गया। अतः उन्हें वापस उ.प्र. में ही बुला लिया गया। लम्बे समय तक वे बरेली के विभाग प्रचारक, संभाग प्रचारक, पश्चिमी उ.प्र.के सम्पर्क प्रमुख और ‘विद्या भारती’ पश्चिमी उ.प्र. के संरक्षक रहे। अटल जी जब पहली बार बलरामपुर से सांसद बने, तब रतन जी वहीं प्रचारक थे। उनकी देखरेख में ही चुनाव लड़ा गया था। अतः अटल जी और उनके सहायक शिवकुमार जी उनका बहुत सम्मान करते थे।


रतन जी प्रवास में जहां ठहरते थे, वहां सबसे हिलमिल जाते थे। महिलाएं और बच्चे रात में उनके पास बैठकर संस्कारप्रद किस्से सुनते थे। सैकड़ों परिवारों में उन्हें बाबा जैसा आदर मिलता था। हंसमुख होने पर भी वे समयपालन, व्यवस्था तथा अनुशासन के मामले में बहुत कठोर थे। संघ शिक्षा वर्ग में यदि कोई शिक्षक संघस्थान पर उचित वेष में नहीं होता था, तो वे उसे वापस भेज देते थे। कार्यकर्ता द्वारा भूल होने पर पहले समझाना, फिर चेतावनी और फिर दंड, यह उनका सिद्धांत था। कार्यकर्ता उनसे दिल खोलकर बात करते थे। वे भी पूरी बात धैर्य से सुनकर पक्का निदान करते थे।


उच्च रक्तचाप के कारण प्रायः उनके पैर सूज जाते थे। कोलकाता में वे अधरंग के भी शिकार हो चुके थे। बोलते हुए उनकी जीभ लड़खड़ा जाती थी। अतः आगरा केन्द्र बनाकर उन्हें प्रवास से विश्राम दे दिया गया। 23 मार्च, 1999 को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में हैपिटाइटिस बी के कारण उनका निधन हुआ। अपने छोटे भाई गोपीरंजन से उन्हें बहुत स्नेह था। वे तब रतन जी के पास ही थे। उनकी अंत्यक्रिया में सुदर्शन जी पूरे समय उपस्थित रहे। उनके निधन पर आगरा में संघ कार्यालय के पास के बाजार भी आधे दिन बंद रहे। 


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