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बुधवार, 31 मार्च 2021

30 मार्च,अप्पा जी जोशी,श्यामजी कृष्ण वर्मा, बौद्धिक योद्धा देवेन्द्र स्वरूपजी

 30 मार्च/जन्म-दिवस


आदर्श कार्यकर्ता अप्पा जी जोशी



एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने कार्यकर्ता  बैठक में कहा कि क्या केवल संघकार्य किसी के जीवन का ध्येय नहीं बन सकता ? यह सुनकर हरिकृष्ण जोशी ने उन 56 संस्थाओं से त्यागपत्र दे दिया, जिनसे वे सम्बद्ध थे। यही बाद में ‘अप्पा जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।


30 मार्च, 1897 को महाराष्ट्र के वर्धा में जन्मे अप्पा जी ने क्रांतिकारियों तथा कांग्रेस के साथ रहकर काम किया। कांग्रेस के कोषाध्यक्ष जमनालाल बजाज के वे निकट सहयोगी थे; पर डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आने पर उन्होंने बाकी सबको छोड़ दिया। डा. हेडगेवार, श्री गुरुजी और बालासाहब देवरस, इन तीनों सरसंघचालकों के दायित्वग्रहण के समय वे उपस्थित थे।


उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता। उनके पिता एक वकील के पास मुंशी थे। उनके 12 वर्ष की अवस्था में पहुँचते तक पिताजी, चाचाजी और तीन भाई दिवंगत हो गये। ऐसे में बड़ी कठिनाई से उन्होंने कक्षा दस तक पढ़ाई की। 1905 में बंग-भंग आन्दोलन से प्रभावित होकर वे स्वाधीनता समर में कूद गये। 1906 में लोकमान्य तिलक के दर्शन हेतु जब वे विद्यालय छोड़कर रेलवे स्टेशन गये, तो अगले दिन अध्यापक ने उन्हें बहुत मारा; पर इससे उनके अन्तःकरण में देशप्रेम की ज्वाला और धधक उठी।


14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया और वे भी एक वकील के पास मुंशी बन गये; पर सामाजिक कार्यों के प्रति उनकी सक्रियता बनी रही। वे नियमित अखाड़े में जाते थे। वहीं उनका सम्पर्क संघ के स्वयंसेवक श्री अण्णा सोहनी और उनके माध्यम से डा. हेडगेवार से हुआ। डा. जी बिना किसी को बताये देश भर में क्रान्तिकारियों को विभिन्न प्रकार की सहायता सामग्री भेजते थे, उसमें अप्पा जी उनके विश्वस्त सहयोगी बन गये। कई बार तो उन्होंने स्त्री वेष धारणकर यह कार्य किया।


दिन-रात कांग्रेस के लिए काम करने से उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी। यह देखकर कांग्रेस के कोषाध्यक्ष जमनालाल बजाज ने इन्हें कांग्रेस के कोष से वेतन देना चाहा; पर इन्होंने मना कर दिया। 1947 के बाद जहाँ अन्य कांग्रेसियों ने ताम्रपत्र और पेंशन ली, वहीं अप्पा जी ने यह स्वीकार नहीं किया। आपातकाल में वे मीसा में बन्द रहे; पर उससे भी उन्होंने कुछ लाभ नहीं लिया। वे देशसेवा की कीमत वसूलने को पाप मानते थे।


एक बार कांग्रेस के काम से अप्पा जी नागपुर आये। तब डा. हेडगेवार के घर में ही बैठक के रूप में शाखा लगती थी। अप्पा जी ने उसे देखा और वापस आकर 18 फरवरी, 1926 को वर्धा में शाखा प्रारम्भ कर दी। यह नागपुर के बाहर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा थी। डा. हेडगेवार ने स्वयं उन्हें वर्धा जिला संघचालक का दायित्व दिया था।


नवम्बर, 1929 में नागपुर में प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक बैठक में सबसे परामर्श कर अप्पा जी ने निर्णय लिया कि डा. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक होने चाहिए। 10 नवम्बर शाम को जब सब संघस्थान पर आये, तो अप्पा जी ने सबको दक्ष देकर ‘सरसंघचालक प्रणाम एक-दो-तीन’ की आज्ञा दी। सबके साथ डा. जी ने भी प्रणाम किया। इसके बाद अप्पा जी ने घोषित किया कि आज से डा. जी सरसंघचालक बन गये हैं।


1934 में गांधी जी को वर्धा के संघ शिविर में अप्पा जी ही लाये थे। 1946 में वे सरकार्यवाह बने। अन्त समय तक सक्रिय रहते हुए 21 दिसम्बर, 1979 को अप्पा जी जोशी का देहान्त हुआ।

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30 मार्च/पुण्य-तिथि      


सागरपार भारतीय क्रान्ति के दूत श्यामजी कृष्ण वर्मा


भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिन महापुरुषों ने विदेश में रहकर क्रान्ति की मशाल जलाये रखी, उनमें श्यामजी कृष्ण वर्मा का नाम अग्रणी है। चार अक्तूबर, 1857 को कच्छ (गुजरात) के मांडवी नगर में जन्मे श्यामजी पढ़ने में बहुत तेज थे।


इनके पिता श्रीकृष्ण वर्मा की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी; पर मुम्बई के सेठ मथुरादास ने इन्हें छात्रवृत्ति देकर विल्सन हाईस्कूल में भर्ती करा दिया। वहाँ वे नियमित अध्ययन के साथ पंडित विश्वनाथ शास्त्री की वेदशाला में संस्कृत का अध्ययन भी करने लगे।


मुम्बई में एक बार महर्षि दयानन्द सरस्वती आये। उनके विचारों से प्रभावित होकर श्यामजी ने भारत में संस्कृत भाषा एवं वैदिक विचारों के प्रचार का संकल्प लिया। ब्रिटिश विद्वान प्रोफेसर विलियम्स उन दिनों संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष बना रहे थे। श्यामजी ने उनकी बहुत सहायता की। इससे प्रभावित होकर प्रोफेसर विलियम्स ने उन्हें ब्रिटेन आने का निमन्त्रण दिया। वहाँ श्यामजी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हुए; पर स्वतन्त्र रूप से उन्होंने वेदों का प्रचार भी जारी रखा।


कुछ समय बाद वे भारत लौट आये। उन्होंने मुम्बई में वकालत की तथा रतलाम, उदयपुर व जूनागढ़ राज्यों में काम किया। वे भारत की गुलामी से बहुत दुखी थे। लोकमान्य तिलक ने उन्हें विदेशों में स्वतन्त्रता हेतु काम करने का परामर्श दिया। इंग्लैण्ड जाकर उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए एक मकान खरीदकर उसका नाम इंडिया हाउस (भारत भवन) रखा। शीघ्र ही यह भवन क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। उन्होंने राणा प्रताप और शिवाजी के नाम पर छात्रवृत्तियाँ प्रारम्भ कीं।


1857 के स्वातंत्र्य समर का अर्धशताब्दी उत्सव ‘भारत भवन’ में धूमधाम से मनाया गया। उन्होंने ‘इंडियन सोशियोलोजिस्ट’ नामक समाचार पत्र भी निकाला। उसके पहले अंक में उन्होंने लिखा - मनुष्य की स्वतन्त्रता सबसे बड़ी बात है, बाकी सब बाद में। उनके विचारों से प्रभावित होकर वीर सावरकर, सरदार सिंह राणा और मादाम भीकाजी कामा उनके साथ सक्रिय हो गये। लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल आदि भी वहाँ आने लगे।


विजयादशमी पर्व पर ‘भारत भवन’ मंे वीर सावरकर और गांधी जी दोनों ही उपस्थित हुए। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के अपराधी माइकेल ओ डायर का वध करने वाले ऊधमसिंह के प्रेरणास्रोत श्यामजी ही थे। अब वे शासन की निगाहों में आ गये, अतः वे पेरिस चले गये। वहाँ उन्होंने ‘तलवार’ नामक अखबार निकाला तथा छात्रों के लिए ‘धींगरा छात्रवृत्ति’ प्रारम्भ की।


भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए शस्त्रों का प्रबन्ध मुख्यतः वे ही करते थे। भारत में होने वाले बमकांडों के तार उनसे ही जुड़े थे। अतः पेरिस की पुलिस भी उनके पीछे पड़ गयी। उनके अनेक साथी पकड़े गये। उन पर भी ब्रिटेन में राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाने लगा। अतः वे जेनेवा चले गये। 30 मार्च, 1930 को श्यामजी ने और 22 अगस्त, 1933 को उनकी धर्मपत्नी भानुमति ने मातृभूमि से बहुत दूर जेनेवा में ही अन्तिम साँस ली। 


श्यामजी की इच्छा थी कि स्वतन्त्र होने के बाद ही उनकी अस्थियाँ भारत में लायी जायें। उनकी यह इच्छा 73 वर्ष तक अपूर्ण रही। अगस्त, 2003 में गुजरात के मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी उनके अस्थिकलश लेकर भारत आये।

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30 मार्च/जन्म-दिवस

बौद्धिक योद्धा देवेन्द्र स्वरूपजी


बौद्धिक जगत में संघ और हिन्दुत्व के विचार को प्रखरता से रखने वाले देवेन्द्र स्वरूपजी का जन्म 30 मार्च, 1926 को उ.प्र. में मुरादाबाद के पास कांठ नामक कस्बे में हुआ था। कांठ और चंदौसी के बाद उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से बी.एस-सी. किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागी होने के कारण वे दो बार विद्यालय से निष्कासित किये गये। 1947 से 1960 तक वे संघ के प्रचारक तथा 1948 के प्रतिबंध काल में छह माह जेल में रहे।


बौद्धिक प्राणी होने के कारण संघ की योजना से 1958 में वे लखनऊ से प्रकाशित साप्ताहिक पांचजन्य के संपादक बने। लखनऊ वि.वि. से इतिहास में एम.ए. कर 1964 में वे डी.ए.वी (पी.जी) काॅलिज, दिल्ली में इतिहास के प्राध्यापक हो गये। 1966-67 में वे अ.भा.विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष तथा 1968 से 72 तक अध्यापक के साथ पांचजन्य के अवैतनिक संपादक भी रहे। आपातकाल में वे एक बार फिर जेल गये। 1980 से 94 तक वे दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक तथा फिर उपाध्यक्ष रहे। वहां से हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘मंथन’ का भी उन्होंने संपादन किया। इतिहासज्ञ होने के नाते वे भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से भी जुड़े रहे।


संघ साहित्य के निर्माण में देवेन्द्रजी ने बहुत समय लगाया। हमारे रज्जू भैया, राष्ट्र ऋषि नानाजी देशमुख, सभ्यताओं के संघर्ष में भारत कहां, अखंड भारत, गांधीजी: हिन्द स्वराज से नेहरू तक, संस्कृति एक: नाम-रूप अनेक, अयोध्या का सच, संघ: बीज से वृक्ष, संघ: राजनीति और मीडिया, जातिविहीन समाज का सपना, राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का इतिहास, भारतीय संविधान की औपनिवेशिक पृष्ठभूमि आदि उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। इसके साथ ही सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं तथा स्मारिकाओं में प्रकाशित हजारों लेख तो हैं ही।


राममंदिर आंदोलन के दौरान मुस्लिम पक्ष की ओर से वामपंथी खड़े होते थे। उनके सामने तथ्य और तर्कों से लैस देवेन्द्रजी की टीम होती थी। अतः हर बार विपक्षी भाग खड़े होते थे। शासकीय वार्ताओं से लेकर न्यायालय तक में मंदिर पक्ष को ऐतिहासिक तथ्य उन्होंने ही उपलब्ध कराये। 1991 में अध्यापन कार्य से सेवानिवृत्त होकर वे पूरी तरह लिखने-पढ़ने में ही लग गये।


देवेन्द्रजी ने आजीवन सदा सत्य ही लिखा। इसीलिए पांचजन्य में पाठक सबसे पहले उनका ‘मंथन’ नामक स्तम्भ ही पढ़ते थे। सुदर्शनजी ने 1990 में बुद्धिजीवियों को एकत्र करने का ‘प्रज्ञा प्रवाह’ नामक कार्य शुरू किया। अब यह काम पूरे देश में चल रहा है। दिल्ली में देवेन्द्रजी इसके सूत्रधार थे। सीताराम गोयल, रामस्वरूपजी तथा गिरिलाल जैन आदि इसी से संपर्क में आये।


बौद्धिक योद्धा होते हुए भी सादगी एवं विनम्रता उनकी बड़ी विशेषता थी। वे पद, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान से सदा दूर रहते थे। लखनऊ में वे पहला ‘वचनेश त्रिपाठी स्मृति व्याख्यान’ देने आये। वहां वे इस बात से नाराज हुए कि उन्हें संघ कार्यालय की बजाय होटल में क्यों ठहराया गया ? आयोजकों के बहुत आग्रह पर उन्होंने केवल मार्गव्यय स्वीकार किया, मानदेय नहीं।


दिल्ली में वे मयूर विहार के सहयोग अपार्टमेंट में सबसे ऊंची मंजिल वाले घर में रहते थे। वहां छत पर उनके निजी पुस्तकालय में हजारों पुस्तकें थीं। किसी भी नयी महत्वपूर्ण पुस्तक के आते ही वे उसे खरीद लेते थे। उनका हर कमरा, यहां तक की सीढि़यां भी किताबों और पत्र-पत्रिकाओं से भरी रहती थी। ताजा खबरों के लिए वे प्रतिदिन 12-15 अखबार भी पढ़ते थे।


वयोवृद्ध होने पर वे अपने बेटे के पास भिवाड़ी (राजस्थान) चले गये। मकर संक्रांति (14 जनवरी, 2019) को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका निधन हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देहदान कर दी गयी। शासन ने उनके बौद्धिक अवदान के लिए उन्हें मृत्योपरांत ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया।

 (संदर्भ : पांचजन्य 27.1.19, साहित्य अमृत अपै्रल 2019)

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