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मंगलवार, 2 मार्च 2021

3 मार्च, लाला हरदयाल, सूरमा संजय कुमार,

 3 मार्च/पुण्य-तिथि


स्वतन्त्रता सेनानी लाला हरदयाल


देश को स्वतन्त्र कराने की धुन में जिन्होंने अपनी और अपने परिवार की खुशियों को बलिदान कर दिया, ऐसे ही एक क्रान्तिकारी थे 14 अक्तूबर, 1884 को दिल्ली में जन्मे लाला हरदयाल। इनके पिता श्री गौरादयाल तथा माता श्रीमती भोलीरानी थीं। इन्होंने अपनी सभी परीक्षाएँ सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। बी.ए में तो उन्होंने पूरे प्रदेश में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था। 


1905 में शासकीय छात्रवृत्ति पाकर ये आॅक्सफोर्ड जाकर पढ़ने लगे। उन दिनों लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा का ‘इंडिया हाउस’ भारतीय छात्रों का मिलन केन्द्र था। बंग-भंग के विरोध में हुए आन्दोलन के समय अंग्रेजों ने जो अत्याचार किये, उन्हें सुनकर हरदयाल जी बेचैन हो उठे। उन्होंने पढ़ाई अधूरी छोड़ दी और लन्दन आकर वर्मा जी के ‘सोशियोलोजिस्ट’ नामक मासिक पत्र में स्वतन्त्रता के पक्ष में लेख लिखने लगे।


पर उनका मन तो भारत आने को छटपटा रहा था। वे विवाहित थे और उनकी पत्नी सुन्दररानी भी उनके साथ विदेश गयी थी। भारत लौटकर 23 वर्षीय हरदयाल जी ने अपनी गर्भवती पत्नी से सदा के लिए विदा ले ली और अपना पूरा समय स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयास में लगाने लगे। वे सरकारी विद्यालयों एवं न्यायालयों के बहिष्कार तथा स्वभाषा और स्वदेशी के प्रचार पर जोर देते थे। इससे पुलिस एवं प्रशासन उन्हें अपनी आँख का काँटा समझने लगे।


जिन दिनों वे पंजाब के अकाल पीडि़तों की सेवा में लगे थे, तब शासन ने उनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया। जब लाला लाजपतराय जी को यह पता लगा, तो उन्होंने हरदयाल जी को भारत छोड़ने का आदेश दिया। अतः वे फ्रान्स चले आये। 


फ्रान्स में उन दिनों मादाम कामा, श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा सरदार सिंह राणा भारत की क्रान्तिकारी गतिविधियों को हर प्रकार से सहयोग देते थे। उन्होंने हरदयाल जी को सम्पादक बनाकर इटली के जेनेवा शहर से ‘वन्देमातरम्’ नामक अखबार निकाला। इसने विदेशों में बसे भारतीयों के बीच स्वतन्त्रता की अलख जगाने में बड़ी भूमिका निभायी।


1910 में वे सेनफ्रान्सिस्को (कैलिफोर्निया) में अध्यापक बन गये। दो साल बाद वे स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत तथा हिन्दू दर्शन के प्राध्यापक नियुक्त हुए; पर उनका मुख्य ध्येय क्रान्तिकारियों के लिए धन एवं शस्त्र की व्यवस्था करना था। 


23 दिसम्बर, 1912 को लार्ड हार्डिंग पर दिल्ली में बम फंेका गया। उस काण्ड में हरदयाल जी को भी पकड़ लिया गया; पर वे जमानत देकर स्विटजरलैंड, जर्मनी और फिर स्वीडर चले गये। 1927 में लन्दन आकर उन्होंने हिन्दुत्व पर एक ग्रन्थ की रचना की।


अंग्रेज जानते थे कि भारत की अनेक क्रान्तिकारी घटनाओं के सूत्र उनसे जुड़ते हैं; पर वे उनके हाथ नहीं आ रहे थे। 1938 में शासन ने उन्हें भारत आने की अनुमति दी; पर हरदयाल जी इस षड्यन्त्र को समझ गये और वापस नहीं आये। अतः अंग्रेजों ने उन्हें वहीं धोखे से जहर दिलवा दिया, जिससे तीन मार्च, 1939 को फिलाडेल्फिया में उनका देहान्त हो गया। 


इस प्रकार मातृभूमि को स्वतन्त्र देखने की अधूरी अभिलाषा लिये इस क्रान्तिवीर ने विदेश में ही प्राण त्याग दिये। वे अपनी उस प्रिय पुत्री का मुँह कभी नहीं देख पाये, जिसका जन्म उनके घर छोड़ने के कुछ समय बाद हुआ था।

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3 मार्च/जन्म-दिवस


करगिल युद्ध का सूरमा संजय कुमार


भारत माता वीरों की जननी है। इसकी कोख में एक से बढ़कर एक वीर पले हैं। ऐसा ही एक वीर है संजय कुमार, जिसने करगिल के युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाया। इसके लिए भारत के राष्ट्रपति महोदय ने उसे युद्धकाल में अनुपम शौर्य के प्रदर्शन पर दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ देकर सम्मानित किया। 


संजय का जन्म ग्राम बकैण (बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश) में श्री दुर्गाराम व श्रीमती भागदेई के घर में 3 मार्च, 1976 को हुआ था। संजय ने 1998 में 13 जैक रायफल्स में लान्सनायक के रूप में सैनिक जीवन प्रारम्भ किया। कुछ समय बाद जकातखाना ग्राम की प्रमिला से उसकी मँगनी हो गयी।


इधर संजय और प्रमिला विवाह के मधुर सपने सँजो रहे थे, उधर भारत की सीमा पर रणभेरी बजने लगी। धूर्त पाकिस्तान सदा से ही भारत को आँखें दिखाता आया है। उसने अपने जन्म के तुरन्त बाद कश्मीर पर हमला किया और उसके एक बड़े भाग पर कब्जा कर लिया। 


प्रधानमन्त्री नेहरू जी की भूल के कारण आज भी वह क्षेत्र उसके कब्जे में ही है। 1965 और 1971 में उसने फिर प्रयास किया; पर भारतीय वीरों ने हर बार उसे धूल चटायी। इससे वह जलभुन उठा और हर समय भारत को नीचा दिखाने का प्रयास करने लगा। ऐसा ही एक प्रयास उसने 1999 में किया।


देश की ऊँची पहाड़ी सीमाओं से भारत और पाकिस्तान के सैनिक भीषण सर्दी के दिनों में पीछे लौट जाते थे। यह प्रथा वर्षों पूर्व हुए एक समझौते के अन्तर्गत चल रही थी; पर 1999 की सर्दी कम होने पर जब भारतीय सैनिक वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि पाकिस्तानियों ने भारतीय क्षेत्र में बंकर बना लिये हैं। 


कुछ समय तक तो उन्हें और लाहौर में बैठे उनके आकाओं को शान्ति से समझाने का प्रयास किया गया; पर जब बात नहीं बनी, तो भारत की ओर से भी युद्ध घोषित कर दिया गया।


संजय कुमार के दल को इस युद्ध में मश्कोह घाटी के सबसे कठिन मोर्चे पर तैनात किया गया था। भर्ती होने के एक वर्ष के भीतर ही देश के लिए कुछ करने की जिम्मेदारी मिलने से वह अत्यधिक उत्साहित थे। पाकिस्तानी सैनिक वहाँ भारी गोलाबारी कर रहे थे। 


इस पर भी संजय ने हिम्मत नहीं हारी और आमने-सामने के युद्ध में उन्होंने तीन शत्रु सैनिकों को ढेर कर दिया। यद्यपि इसमें संजय स्वयं भी बुरी तरह घायल हो गये; पर घावों से बहते रक्त की चिन्ता किये बिना वह दूसरे मोर्चे पर पहुुँच गये।  


दूसरा मोर्चा भी आसान नहीं था; पर संजय कुमार ने वहाँ भी अपनी राइफल से गोली बरसाते हुए सभी पाकिस्तानी सैनिकों को जहन्नुम पहुँचा दिया। जब उनके साथियों ने उस दुर्गम पहाड़ी पर तिरंगा फहराया, तो संजय का मन प्रसन्नता से नाच उठा; पर तब तक बहुत अधिक खून निकलने के कारण उनकी स्थिति खराब हो गयी थी। साथियों ने उन्हें शीघ्रता से आधार शिविर और फिर अस्पताल पहुँचाया, जहाँ वह शीघ्र ही स्वस्थ हो गये।


सामरिक दृष्टि से मश्कोह घाटी का मोर्चा अत्यन्त कठिन एवं महत्त्वपूर्ण था। इस जीत में संजय कुमार की विशिष्ट भूमिका को देखकर सैनिक अधिकारियों की संस्तुति पर राष्ट्रपति श्री के.आर.नारायणन ने 26 जनवरी, 2000 को उन्हें ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया। संजय कुमार आज भी सेना में तैनात हैं। उनकी इच्छा है कि उनका बेटा भी सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करे।

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3 मार्च/जन्म-दिवस


पेड़ वाली अम्मा बीरमती देवी


पर्यावरण के बारे में अधिकांश लोग केवल भाषणों में चिन्ता व्यक्त कर अपना काम पूरा समझ लेते हैं; पर कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो शासन और जनता को गाली देने की बजाय धरातल पर ठोस काम कर रहे हैं। इनमें से ही एक हैं श्रीमती बीरमती देवी, जो ‘पेड़ वाली अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं।


बीरमती देवी का जन्म तीन मार्च, 1942 को ग्राम बुढ़पुर (जिला रिवाड़ी, हरियाणा) में श्री महासिंह एवं सरिया देवी के घर में हुआ। गांव और खेतों के बीच पली होने के कारण उन्हें पेड़, पौधे, जल, जंगल और पशुओं से बहुत प्यार था। 


उनसे छोटी चार बहनें और एक भाई भी था। पांच कन्याओं के कारण उनकी मां को परिवार में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। अतः बीरमती ने महिला उत्थान के लिए काम करने की बात बचपन में ही ठान ली। कक्षा आठ तक की पढ़ाई के बाद बीरमती देवी का विवाह ग्राम कादीपुर, जिला महेन्द्रगढ़ निवासी हरदयाल सिंह से हो गया। पुरुषवादी मानसिकता वाली ससुराल में छोटी-छोटी बात पर कई बार उनकी पिटाई हुई। 


वह छोटे परिवार की समर्थक थीं; पर एक पुत्र के लिए परिवार के दबाव में उन्हें पांच बेटियों को जन्म देना पड़ा। उन्होंने योजनापूर्वक अपनी सब बहनों तथा कई रिश्तेदारों की कन्याओं का विवाह कादीपुर में ही करा दिया। इससे समाज सुधार की उनकी बातों केे समर्थन में बोलने वालों की संख्या गांव में बढ़ गयी।


अब बीरमती देवी ने महिलाओं को संगठित करना प्रारम्भ किया। इसका विरोध होना ही था; पर उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। धीरे-धीरे गांव के पुरुष भी उनके साथ आ गये और 1977 में वे गांव की महिला पंच चुनी गयीं। इसके बाद तो उन्होंने हर सामाजिक कुरीति को मिटाने का संकल्प ले लिया। 


बीरमती देवी ने सबसे पहले अपने गांव में परिवार कल्याण कार्यक्रमों के प्रति महिलाओं को जागरूक किया। इस पर जिला प्रशासन ने उन्हें सम्मानित कर पूरे जिले में इसी शैली से काम करने का निश्चय किया। फिर उन्होंने प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत महिलाओं को पढ़ाना प्रारम्भ किया। अल्प बचत एवं स्वयं सहायता समूह के माध्यम से अधिकांश महिलाएं घरेलू कारोबार करने लगीं। उन्होंने महिलाओं को पशुओं के लिए ऋण भी दिलवाये।


धुएं वाले चूल्हे के दुष्प्रभाव देखकर उन्होंने धूम्ररहित चूल्हे लगवाये। बाल विवाह, दहेज की अनुचित मांग, जल संरक्षण, कन्या भू्रण हत्या, एड्स, पर्दा प्रथा, नशा मुक्ति जैसे विषयों पर नुक्कड़ नाटक तथा लोकगीतों द्वारा उन्होंने जन जागरण किया। लोकगीतों के लेखन और गायन के साथ वे अभिनय भी कर लेती हैं। उन्होंने कई बार मानव तथा पशु चिकित्सा शिविर भी लगवाये। 


हरियाणा में कन्याओं का अनुपात पूरे देश में सबसे कम है। बीरमती देवी के प्रयास से उनके निजामपुर विकास खंड में यह प्रति 1,000 पर 810 से बढ़कर 907 हो गया। 1988-89 में सरपंच रहते हुए उन्होंने वन विभाग के सहयोग से 35 एकड़ भूमि पर पेड़ लगवाये। उनके कामों के लिए जिला और राज्य स्तर पर शासन की ओर से उन्हें कई बार सम्मानित किया गया है।


हर ग्रामवासी के साथ ही पेड़-पौधे और पशु-पक्षियों को भी मातृवत स्नेह देने वाली बीरमती देवी ने सिद्ध किया है कि शुद्ध मन और दृढ़ संकल्प के साथ किया जाने वाला कार्य अवश्य सफल होता है। आयु के ढलान पर भी उनका उत्साह बना हुआ है। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे, यही कामना है।


(संदर्भ : दैनिक जागरण, इनसे मिलिए)

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3 मार्च/जन्म-दिवस


सिद्धांतप्रिय प्रचारक कश्मीरी लाल जी


श्री कश्मीरी लाल जी का जन्म तीन मार्च, 1940 को अविभाजित भारत के झंग क्षेत्र के शेरकोट नगर में श्रीमती धर्मबाई की गोद में हुआ था। 1947 में देश की स्वतंत्रता एवं विभाजन के बाद उनके पिता श्री रामलाल सिंधवानी दिल्ली के नजफगढ़ में आकर बस गये। यहां पर वे प्रापर्टी सम्बंधी कारोबार करते थे। चार भाई और चार बहिनों में कश्मीरी लाल जी सबसे छोटे थे। धार्मिक एवं सामाजिक प्रवृत्ति के कारण उनके पिता एवं बड़े भाई सनातन धर्म सभा के प्रधान रहे। इसका प्रभाव कश्मीरी लाल जी पर भी पड़ा।


कक्षा 11 तक की शिक्षा नजफगढ़ में ही पाकर वे रोहतक आ गये। यहां के वैश्य कॉलिज से बी.ए. और 1965 में बी.एड. कर वे रोहतक में ही पढ़ाने लगे। इस दौरान वे रोहतक नगर के सांय कार्यवाह भी रहे। उन्होंने 1960, 64 और फिर 1967 में संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसके बाद उन्होंने अध्यापक की अपनी अच्छी खासी नौकरी पर लात मार दी और संघ के प्रचारक बनकर देश, धर्म और समाज की सेवा में लग गये।


प्रचारक के नाते वे रिवाड़ी, सोनीपत, गुरुग्राम, कुरुक्षेत्र, रोहतक आदि में तहसील प्रचारक से लेकर विभाग प्रचारक तक रहे। इसके बाद लम्बे समय तक वे हरियाणा के सेवा प्रमुख और फिर प्रचारक प्रमुख भी रहे। उनके कार्यकाल में सेवा कार्यों का सघन जाल पूरे राज्य में फैला। वे स्वयं निर्धन बस्तियों में जाकर प्रेमपूर्वक लोगों से मिलते थे। वहीं चाय, नाश्ता और भोजन भी करते थे। अतः हरियाणा में सैकड़ों सेवा केन्द्र और प्रकल्प शुरू हो गये। इनमें घुमन्तु जनजातियों के गाड़िया लुहारों के बीच हुए काम विशेष उल्लेखनीय हैं। इससे उनके बच्चे शिक्षित हुए और वे सब लोग समाज की मुख्य धारा में शामिल हुए।


कश्मीरी लाल जी का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था। उनकी बातचीत में हास्य का पुट रहता था। वे अपने प्रति कठोर, पर दूसरों के प्रति नरम रहते थे। सब उन्हें ‘ताऊ जी’ कहते थे। अन्य कई कामों के साथ उन पर ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की देखभाल का काम भी था। समिति में मुख्यत बालिकाएं काम करती हैं; पर विवाह के बाद ससुराल चले जाने से उनकी शाखा बंद हो जाती है। अतः उन्होंने लड़कियों के साथ ही विवाह के बाद संघ परिवार में आयी बहुओं पर ध्यान केन्द्रित किया। इससे समिति की सैकड़ों शाखाएं स्थायी हो गयीं।


व्यावहारिक होने के बावजूद कश्मीरी लाल जी बहुत सिद्धांतवादी व्यक्ति भी थे। जब उनके भतीजे के पुत्र का दिल्ली में विवाह हुआ, तो वे इस बात पर अड़ गये कि विवाह में शराब का सेवन नहीं होगा। परिवार वाले इससे सहमत नहीं थे। अतः सामान उठाकर वे वापस रोहतक आ गये। उन्होंने रोहतक में भी कई कार्यकर्ताओं को विवाह के लिए निमंत्रण दिया था। वे लोग जब कार्यालय पर एकत्र हुए, तो उन्हें वहां पाकर हैरान हो गये।कश्मीरी लाल जी ने पूरी बात बताकर उन्हें मिठाई खिलायी और विदा कर दिया।


लम्बे समय तक उनका केन्द्र रोहतक रहा। वृद्धावस्था में वे वहीं के संघ कार्यालय पर ही रहने लगे। इस दौरान भी उन पर सेवा भारती के संरक्षक एवं प्रांतीय कार्यकारिणी के सदस्य की जिम्मेदारी रही। दोनों फेफड़े खराब होने के कारण उन्हें सांस लेने में कष्ट होता था। फिर भी वे कार्यालय पर आने वाले कार्यकर्ताओं से उनके सुख-दुख पूछते थे। इससे लोग स्वयं को हल्का अनुभव करते थे। प्रचारकों से भी उनके कार्यक्षेत्र की जानकारी लेते रहते थे। बिस्तर पर लेटे हुए भी फोन से वे सैकड़ों लोगों से संपर्क रखते थे। इस प्रकार बीमारी में भी वे कार्यकर्ताओं की संभाल का महत्वपूर्ण कार्य करते रहे।


30 अपै्रल, 2018 को रोहतक में लोगों से बात करते हुए अचानक वे शांत हो गये। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्रदान कर दिये गये। इस प्रकार उन्होंने 51 वर्ष प्रचारक जीवन में और जीवन के बाद भी एक आदर्श सेवाभावी कार्यकर्ता का उदाहरण प्रस्तुत किया।


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