यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 9 मार्च 2021

8 मार्च,माधवराव देवड़े,सेनानी दिलीप सिंह जूदेव


8 मार्च/जन्म-तिथि


                 संगठन के मर्मज्ञ माधवराव देवड़े


बालपन में ही संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार का पावन संस्पर्श पाकर जिन लोगों का जीवन धन्य हुआ, माधवराव भी उनमें से एक थे। नागपुर के एक अति साधारण परिवार में उनका जन्म 8 मार्च, 1922 को हुआ था। 


एक मन्दिर की पूजा अर्चना से उनके परिजनों की आजीविका चलती थी। मन्दिर में ही उन्हें आवास भी मिला था। इस नाते उनका परिवार पूर्ण धार्मिक था। देवमन्दिर से जुड़े रहने के कारण उनके नाम के साथ ‘देवले’ गोत्र लग गया, जो उत्तर प्रदेश में आकर ‘देवड़े’ हो गया।


माधवराव की सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में हुई। छात्र जीवन में वे कुछ समय कम्युनिस्टों से भी प्रभावित रहे; पर उनकी रुचि खेल और विशेषकर कबड्डी में बहुत थी। गर्मियों की छुट्टियों में जब वे मामा जी के घर गये, तो वहाँ लगने वाली शाखा में हो रही कबड्डी के आकर्षण से वह भी शाखा में शामिल हो गये। कबड्डी के प्रति उनका यह प्रेम सदा बना रहा। प्रचारकों के वर्ग में वे प्रांत प्रचारक होते हुए भी कबड्डी खेलने के लिए के मैदान में उतर आते थे।


मामा जी के घर से लौटकर फिर वे नागपुर की शाखा में जाने लगे। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से बढ़ता गया और वे कब शाखा में तन-मन से रम गये, इसका उन्हें पता ही नहीं लगा। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, अतः घर वालों ने शिक्षा पूरी होने पर नौकरी करने को कहा। 


यों तो माधवराव संघ के लिए सम्पूर्ण जीवन देने का निश्चय कर चुके थे; पर वे कुछ समय नौकरी कर घर को भी ठीक करना चाहते थे। एक स्थान पर जब वे नौकरी के लिए गये, तो वहाँ लगातार काम करने का अनुबन्ध करने को कहा गया। माधवराव ने इसे स्वीकार नहीं किया और वे नौकरी को लात मार कर घर वापस आ गये।


यह 1942 का काल था। देश में गांधी जी का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ और ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ जोरों पर था। विभाजन की आशंका से भारत भयभीत था। विश्वाकाश पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल भी गरज-बरस रहे थे। ऐसे में जब द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने युवकों से अपना जीवन देश की सेवा में अर्पण करने को कहा, तो युवा माधवराव भी इस पंक्ति में आ खड़े हुए। श्री गुरुजी ने उन्हें उत्तर प्रदेश के जौनपुर में भेजा। 


उत्तर प्रदेश की भाषा, खानपान और परम्पराओं से एकदम अनभिज्ञ माधवराव एक बार इधर आये, तो फिर वापस जाने का कभी सोचा ही नहीं। उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर काम करने के बाद 1968 में वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने। आपातकाल में शाहबाद (जिला रामपुर) में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर मीसा में जेल भेज दिया।


आपातकाल के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय प्रचारक की जिम्मेदारी मिली। हर कार्यकर्ता की बात को गम्भीरता से सुनकर उसे टाले बिना उचित निर्णय करना, यह उनकी कार्यशैली की विशेषता थी। इसीलिए जो उनके सम्पर्क में आया, वह सदा के लिए उनका होकर रह गया। 


श्री देवड़े जी मधुमेह से पीडि़त थे। उनका कद छोटा और शरीर हल्का था। फिर भी प्रदेश की हर तहसील का उन्होंने सघन प्रवास किया। वे कम बोलते थे; पर जब बोलते थे, तो कोई उनकी बात टालता नहीं था। प्रवास में कष्ट होने पर 1995-96 में उन्हें विद्या भारती, उत्तर प्रदेश का संरक्षक बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अनेक शिक्षा-प्रकल्पों को नव आयाम प्रदान किये। 


77 वर्ष की आयु में निराला नगर, लखनऊ में 23 अगस्त, 1998 को रात में सोते-सोते ही वह चिरनिद्रा में लीन हो गये।

.............................



8 मार्च/जन्म-दिवस


 घर वापसी अभियान के सेनानी दिलीप सिंह जूदेव 


भारत में जो भी मुसलमान या ईसाई हैं, उन सबके पूर्वज हिन्दू ही हैं। उन्हें सम्मान सहित अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में शामिल करना ही ‘घर वापसी’ कहलाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और वनवासी कल्याण आश्रम इसमें सक्रिय हैं। आठ मार्च, 1949 को जशपुर के राज परिवार में जन्मे श्री दिलीप सिंह जूदेव घर वापसी अभियान के एक प्रखर सेनानी थे। 


उन्होंने रांची के सेंट जेवियर काॅलेज से बी.ए. तथा छोटा नागपुर के लाॅ काॅलेज से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर वे अपने पारिवारिक परम्परा के अनुसार राजनीति तथा सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो गये। जशपुर इन दिनों घने वनों से आच्छादित छत्तीसगढ़ राज्य में है। हजारों वर्ष से यहां प्रकृति पूजक वनवासी जातियां रहती हैं, जिनकी हिन्दू धर्म के साथ ही अपने राज परिवार पर भी असीम श्रद्धा है। वे अपने धर्म को ‘सरना धर्म’ कहते हैं।


भारत में जब अंग्रेज आये, तो उन्होंने इस क्षेत्र को धर्मान्तरण के लिए बहुत उर्वर समझकर यहां एक विशाल चर्च बनाया। एक ओर सेवा का पाखंड, तो दूसरी ओर बंदूक का आतंक। भोले वनवासियों का शेष भारत से संपर्क भी कम ही था। अतः क्रमशः वे ईसाई होने लगे। 1947 के बाद यद्यपि राजशाही समाप्त हो गयी; पर राजपरिवारों के प्रति लोगों की श्रद्धा बनी रही। 


जूदेव राजपरिवार सदा से ही हिन्दू धर्म का संरक्षक रहा है। जब ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य प्रारम्भ हुआ, तो इस परिवार ने ही उन्हें छात्रावास तथा अन्य प्रकल्पों के लिए भूमि दी। अपने पिता की मृत्यु के बाद जब श्री दिलीप सिंह राजा बने, तो उन्होंने धर्मान्तरण के इस खतरे को पहचान कर ‘घर वापसी’ अभियान प्रारम्भ किया। इससे वे बहुत शीघ्र ही न केवल छत्तीसगढ़, अपितु निकटवर्ती मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा के वनवासियों में भी लोकप्रिय हो गये। लोग उन्हें ‘कुमार साहब’ कहकर सम्बोधित करते थे। 


विनम्रता की प्रतिमूर्ति दिलीप सिंह जी हिन्दू हृदय सम्राट थे। उनके महल के द्वार निर्धन वनवासियों के लिए सदा खुले रहते थे। राजा होते हुए भी वे घर वापसी करने वाले पुरुष और स्त्रियों के पैर धोकर उन्हें धोती तथा जनेऊ भेंट करते थे। इस प्रकार उन्होंने लाखों लोगों को फिर से परावर्तित किया। इससे दुनिया भर के ईसाइयों में खलबली मच गयी। अतः वे उनके चरित्रहनन के प्रयास करने लगे। 


उनके पिता 1970 में जनसंघ की ओर से लोकसभा के सांसद बने थे। उन दिनों देश में इंदिरा गांधी की तूती बोल रही थी। अधिकांश पुराने राजा और रजवाड़े उनके साथ थे; पर श्री जूदेव ने अपना चुनाव लड़ते हुए जनसंघ के कई अन्य प्रत्याशियों को भी आर्थिक सहायता दी। 


श्री दिलीप सिंह ने 1978 में अपनी राजनीतिक यात्रा जशपुर नगरपालिका के अध्यक्ष के नाते प्रारम्भ की। फिर वे भारतीय जनता पार्टी की ओर से दो बार लोकसभा तथा तीन बार राज्यसभा के सदस्य बने। जब केन्द्र में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी, तो उन्हें पर्यावरण एवं वन राज्यमंत्री बनाया गया। वे प्रायः फौजी वेश पहनते थे। इस पर उनकी रौबीली मूंछें बहुत फबती थीं। इसलिए उन्हें ‘छत्तीसगढ़ का शेर’ भी कहा जाता था।


दिसम्बर, 2012 में उनके बड़े पुत्र प्रबल प्रताप सिंह का आकस्मिक निधन हो गया। उसका विवाह भी कुछ समय पूर्व ही हुआ था। इससे श्री दिलीप सिंह अवसाद और निराशा से घिर गये। वे गुर्दे और यकृत के रोग से भी पीडि़त थे। कुछ समय बाद उनकी मां श्रीमती जयादेवी का आशीर्वाद भी उनके सिर से उठ गया। इससे वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट गये। इलाज के लिए पहले उन्हें रांची और फिर दिल्ली के पास गुड़गांव के एक विख्यात चिकित्सालय में भर्ती कराया गया, जहां 14 अगस्त, 2013 को उनका प्राणांत हो गया।  


(संदर्भ : पांचजन्य/आर्गनाइजर 1.9.2013 एवं तत्कालीन पत्र)

1 टिप्पणी: