21 फरवरी/बलिदान-दिवस
अमर बलिदानी वीरेन्द्रनाथ दत्त
क्रान्तिकारी वीरेन्द्रनाथ दत्त गुप्त का जन्म 20 जून, 1889 को बालीगाँव हाट (साहीगंज, बंगाल) में हुआ था। उनके पिता श्री उमाचरण का देहान्त तब ही हो गया था, जब वे केवल नौ वर्ष के थे। माता वसन्त कुमारी की गोद में पले वीरेन्द्र ने बालीगाँव हाट, साहीगंज और कोलकाता में शिक्षा पायी। स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे कक्षा दस की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाये।
उन दिनों विप्लवी दल ‘सुहृद समिति’ के कार्यकर्ता सतीश चन्द्र सेन राधानाथ हाईस्कूल में पढ़ाते थे। उन्होंने वीरेन्द्र को समिति में भर्ती कर प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। वे उसी गाँव में तरुणों को व्यायाम के साथ ही लाठी व छुरेबाजी का अभ्यास कराते थे।
इससे वहाँ के मुस्लिम बहुत नाराज होते थे। उन्होंने कई बार उस व्यायामशाला में उपद्रव करने का प्रयास किया; पर वीरेन्द्र तथा उसके साथियों की उग्र तैयारी देखकर वे पीछे हट गये। यद्यपि ‘आत्मोन्नति समिति’ के चाँदपुर, हमालपुर आदि स्थानों पर चल रहे व्यायाम केन्द्रों पर वे हमला करने में सफल रहे। उन दिनों इसी प्रकार के नामों से क्रान्तिकारी युवक एकत्र होते थे।
उन दिनों पुलिस उपाधीक्षक मौलवी शम्सुल आलम अलीपुर बम काण्ड की जाँच कर रहा था। वह अंग्रेज भक्त तथा लीगी मानसिकता का व्यक्ति था। उसकी इच्छा थी कि अधिकाधिक क्रान्तिकारियों को फाँसी के फन्दे तक पहुँचाया जाये। हावड़ा षड्यन्त्र केस में भी इसके प्रयास से अनेक क्रान्तिकारियों को लम्बी सजा हुई थी।
इसने अलीपुर काण्ड में 40 हिन्दू युवकों को आरोपी बनाकर 206 झूठे गवाह न्यायालय में खड़े किये। इस पर ‘विवेकानन्द समिति’ के नाम से काम कर रहे विप्लवियों ने शम्सुल आलम को उसके पापों का दण्ड देकर जहन्नुम भेजने का निर्णय ले लिया।
यह काम सतीश सरकार, यतीश मजूमदार और वीरेन्द्रनाथ दत्त को सौंपा गया। सुरेश मजूमदार ने वीरेन्द्र को रिवाल्वर दिया और वे सब 24 जनवरी, 1910 को न्यायालय पहुँच गये। उस दिन वहाँ अलीपुर बम काण्ड की सुनवाई शुरू हुई।
मौलवी शम्सुल आलम बड़ी तत्परता से अपने काम में लगा था। क्रान्तिकारी भी ताक में थे। अचानक शम्सुल किसी काम से न्यायालय से बाहर आया, बस वीरेन्द्र दत्त ने निशाना साधकर गोली दाग दी। शम्सुल के मुँह से ‘या खुदा’ निकला और उसने वहीं दम तोड़ दिया।
सतीश मजूमदार तो वहाँ से फरार होने में सफल हो गये; पर वीरेन्द्र ने बचने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया। अतः वे पुलिस की शिकंजे में फँस गये। इसके कुछ समय बाद इस काण्ड से जुड़े कुछ अन्य क्रान्तिकारी भी पुलिस की गिरफ्त में आ गये; पर शम्सुल के वध से इतना लाभ अवश्य हुआ कि गवाहों के मन में भय बैठ गया। पुलिस केवल छह युवकों पर ही आरोप सिद्ध कर सकी। इसका श्रेय निःसन्देह वीरेन्द्र दत्त को ही है।
पुलिस ने वीरेन्द्र पर अनेक अत्याचार किये; पर वे उससे कोई रहस्य नहीं उगलवा सके। अन्ततः न्यायाधीश लारेन्स जेकिन्स ने वीरेन्द्र को फाँसी की सजा सुना दी। फाँसी से एक दिन पूर्व वीरेन्द्र के बड़े भाई धीरेन्द्र दत्त मिलने आये, तो वीरेन्द्र ने कहा, ‘‘दादा, यह गर्व करने की बात है कि कल मैं मातृभूमि की सेवा में फाँसी पर चढ़ रहा हूँ। यह समय आनन्द का है, शोक का नहीं।’’
21 फरवरी, 1910 को वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुए वीर वीरेन्द्रनाथ दत्त फाँसी पर झूल गये।
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21 फरवरी/पुण्य-तिथि
गांधी जी के जीवन में कस्तूरबा का योगदान
मोहनदास करमचन्द गांधी को सारा भारत ही क्या, सारा विश्व जानता है; पर उन्हें गोधी जी के रूप में आगे बढ़ाने के लिए जिस महिला ने अन्तिम समय तक सहारा और उत्साह प्रदान किया, वह थीं उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधी, जो ‘बा’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। यह बात गांधी जी ने कई बार स्वयं स्वीकार की है कि उन्हें महान बनाने का श्रेय उनकी पत्नी को है। बा के बिना गांधी जी स्वयं को अपूर्ण मानते थे।
कस्तूरबा का जन्म पोरबन्दर, गुजरात के कापड़िया परिवार में अपै्रल, 1869 में हुआ था। उनके पिता पोरबन्दर के नगराध्यक्ष रह चुके थे। इस प्रकार कस्तूरबा को राजनीतिक और सामाजिक जीवन विरासत में मिला। उस समय की सामाजिक परम्पराओं के अनुसार उन्हें विद्यालय की शिक्षा कम और घरेलू कामकाज की शिक्षा अधिक दी गयी। 13 साल की छोटी अवस्था में उनका विवाह अपने से पाँच महीने छोटे मोहनदास करमचन्द गांधी से हो गया।
वे गांधी परिवार की सबसे छोटी पुत्रवधू थीं। विवाह के बाद एक सामान्य हिन्दू नारी की तरह बा ने अपनी इच्छा और आकांक्षाओं को अपने पति और उनके परिवार के प्रति समर्पित कर दिया। फिर तो गांधी जी ने जिस मार्ग की ओर संकेत किया, बा ना-नुकुर किये बिना उस पर चलती रहीं।
दक्षिण अफ्रीका के प्रवास में जब गांधी जी ने सत्याग्रह के शस्त्र को अपनाया, तो कस्तूरबा उनके साथ ही थीं। भारत में भी जितने कार्यक्रम गांधी जी ने हाथ में लिये, सबमें उनकी पत्नी की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। मार्च, 1930 में नमक कानून के उल्लंघन के लिए दाण्डी यात्रा का निर्णय हुआ। यद्यपि उस यात्रा में बा साथ नहीं चलीं; पर उसकी पूर्व तैयारी में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। यात्रा के बाद जब गांधी जी को यरवदा जेल ले जाया गया, तो उन्होंने बा को एक बहादुर स्त्री की तरह आचरण करने का सन्देश दिया।
बा ने इसे जीवन में उतार कर अपना मनोबल कम नहीं होने दिया। जेल से गांधी जी ने उनके लिए एक साड़ी भेजी, जो उन्होंने स्वयं सूत कातकर तैयार की थी। यह इस बात का प्रतीक था कि गांधी जी के हृदय में बा के लिए कितना प्रेम एवं आदर था।
गांधी जी प्रायः आन्दोलन की तैयारी के लिए देश भर में प्रवास करते रहते थे; पर पीछे से बा शान्त नहीं बैठती थीं। वे भी महिलाओं से मिलकर उन्हें सत्याग्रह, शराब बन्दी, स्वदेशी का प्रयोग तथा विदेशी कपड़ों की होली जैसे कार्यक्रमों के लिए तैयार करती रहती थीं। जब गांधी जी यरवदा जेल से छूटकर वायसराय से मिलने शिमला गये, तो बा भी उनके साथ गयीं और वायसराय की पत्नी को देश की जनता की भावनाओं से अवगत कराया।
कांग्रेस ने दो अगस्त, 1942 को ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ करने का प्रस्ताव पास किया। गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया। 9 अगस्त की शाम को मुम्बई के शिवाजी पार्क में एक विशाल रैली होने वाली थी; पर दिन में ही गंाधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर बा ने घोषणा कर दी कि रैली अवश्य होगी और वे उसे सम्बोधित करेंगी। इस पर शासन ने उन्हें भी गिरफ्तार कर आगा खाँ महल में बन्द कर दिया।
जेल में बा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था; पर उन्होंने किसी भी कीमत पर झुकना स्वीकार नहीं किया। 21 फरवरी, 1944 को बा ने अन्तिम साँस ली और वहीं आगा खाँ महल में उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।
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21 फरवरी/पुण्य-तिथि
कित्तूर की वीर रानी चेन्नम्मा
कर्नाटक में चेन्नम्मा नामक दो वीर रानियां हुई हैं। केलाड़ी की चेन्नम्मा ने औरंगजेब से, जबकि कित्त्ूार की चेन्नम्मा ने अंग्रेजों से संघर्ष किया था।
कित्तूर के शासक मल्लसर्ज की रुद्रम्मा तथा चेन्नम्मा नामक दो रानियां थीं। काकतीय राजवंश की कन्या चेन्नम्मा को बचपन से ही वीरतापूर्ण कार्य करने में आनंद आता था। वह पुरुष वेश में शिकार करने जाती थी। ऐसे ही एक प्रसंग में मल्लसर्ज की उससे भेंट हुई। उसने चेन्नम्मा की वीरता से प्रभावित होकर उसे अपनी दूसरी पत्नी बना लिया।
कित्तूर पर एक ओर टीपू सुल्तान तो दूसरी ओर अंग्रेज नजरें गड़ाये थे। दुर्भाग्यवश चेन्नम्मा के पुत्र शिव बसवराज और फिर कुछ समय बाद पति का भी देहांत हो गया। ऐसे में बड़ी रानी के पुत्र शिवरुद्र सर्ज ने शासन संभाला; पर वह पिता की भांति वीर तथा कुशल शासक नहीं था। स्वार्थी दरबारियों की सलाह पर उसने मराठों और अंग्रेजों के संघर्ष में अंग्रेजों का साथ दिया।
अंग्रेजों ने जीतने के बाद सन्धि के अनुसार कित्तूर को भी अपने अधीन कर लिया। कुछ समय बाद बीमारी से राजा शिवरुद्र सर्ज का देहांत हो गया। चेन्नम्मा ने शिवरुद्र के दत्तक पुत्र गुरुलिंग मल्लसर्ज को युवराज बना दिया।
पर अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को नहीं माना तथा राज्य की देखभाल के लिए धारवाड़ के कलैक्टर थैकरे को अपना राजनीतिक दूत बनाकर वहां बैठा दिया। कित्तूर राज्य के दोनों प्रमुख दीवान मल्लप्पा शेट्टी तथा वेंकटराव भी रानी से नाराज थे। वे अंदर ही अंदर अंग्रेजों से मिले थे।
थैकरे ने रानी को संदेश भेजा कि वह सारे अधिकार तुरंत मल्लप्पा शेट्टी को सौंप दे। रानी ने यह आदेश ठुकरा दिया। वे समझ गयीं कि अब देश और धर्म की रक्षा के लिए लड़ने-मरने का समय आ गया है। रानी अपनी प्रजा को मातृवत प्रेम करती थीं। अतः उनके आह्नान पर प्रजा भी तैयार हो गयी। गुरु सिद्दप्पा जैसे दीवान तथा बालण्णा, रायण्णा, जगवीर एवं चेन्नवासप्पा जैसे देशभक्त योद्धा रानी के साथ थे।
23 अक्तूबर, 1824 को अंग्रेज सेना ने थैकरे के नेतृत्व में किले को घेर लिया। रानी ने वीर वेश धारण कर अपनी सेना के साथ विरोधियों को मुंहतोड़ उत्तर दिया। थैकरे वहीं मारा गया और उसकी सेना भाग खड़ी हुई। कई अंग्रेज सैनिक तथा अधिकारी पकड़े गये, जिन्हें रानी ने बाद में छोड़ दिया; पर देशद्रोही दीवान मल्लप्पा शेट्टी तथा वेंकटराव को फांसी पर चढ़ा दिया गया।
स्वाधीनता की आग अब कित्तूर के आसपास भी फैलने लगी थी। अतः अंग्रेजों ने मुंबई तथा मद्रास से कुमुक मंगाकर फिर धावा बोला। उन्हें इस बार भी मुंह की खानी पड़ी; पर तीसरे युद्ध में उन्होंने एक किलेदार शिव बासप्पा को अपने साथ मिला लिया। उसने बारूद में सूखा गोबर मिलवा दिया तथा किले के कई भेद शत्रुओं को दे दिये। अतः रानी को पराजित होना पड़ा।
अंग्रेजों ने गुरु सिद्दप्पा को फांसी पर चढ़ाकर रानी को धारवाड़ की जेल में बंद कर दिया। देशभक्त जनता ने रानी को मुक्त कराने का प्रयास किया; पर वे असफल रहे। पांच वर्ष के कठोर कारावास के बाद 21 फरवरी, 1929 को धारवाड़ की जेल में ही वीर रानी चेन्नम्मा का देहांत हुआ।
रानी ने 23 अक्तूबर को अंग्रेजों को ललकारा था। उनकी याद में इस दिन को दक्षिण भारत में ‘महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, राष्ट्रधर्म अपै्रल 2011)
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21 फरवरी/जन्म-दिवस
विदेशी शरीर में भारतीय आत्मा श्रीमां
21 फरवरी, 1878 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में जन्मी श्रीमां का पूर्व नाम मीरा अल्फांसा था। उनके पिता श्री मोरिस एक बैंकर तथा माता श्रीमती मातिल्डा अल्फांसा थीं। उनके मिस्र के राजघराने से रक्त संबंध थे। अभिभावकों ने उनका नाम परम कृष्णभक्त मीराबाई के नाम पर क्यों रखा, यह कहना कठिन है; पर इससे उनके भावी जीवन का मार्ग अवश्य प्रशस्त हो गया। चार वर्ष की अवस्था से ही वे कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने लगी थी। उन्हें लगता कि एक ज्योति शिरोमंडल में प्रवेश कर असीम शांति प्रदान करती है। सामान्य बच्चों की तरह खेलकूद में मीरा की कोई रुचि नहीं थी।
12-13 वर्ष की अवस्था तक वे कई घंटे ध्यान में डूबने लगीं। इधर पढ़ाई में वे सामान्य पाठ्यक्रम के साथ ही गीत, संगीत, नृत्य, साहित्य, चित्रकला आदि में भी खूब रुचि लेती थीं। उन्हें लगता था कि उनका सूक्ष्म शरीर रात में भौतिक शरीर से बाहर निकल जाता है। उन्हें लगता कि उनका विशाल सुनहरा परिधान पूरे पेरिस नगर के ऊपर छाया हुआ है, जिसके नीचे आकर और उसे छूकर दुनिया के हजारों लोग अपने दुखों से मुक्ति पा रहे हैं।
मीरा को नींद में ही कई ऋषियों से अनेक अलौकिक शिक्षाएं मिलीं। एक प्रभावी व्यक्तित्व उन्हें प्रायः दिखाई देता था, जिसे वे कृष्ण कहती थीं। उन्हें लगता था कि वे इस धरा पर हैं और उनके साथ रहकर ही उन्हें कार्य करना है। आगे चलकर उन्होंने अल्जीरिया के ‘तेमसेम’ नामक स्थान पर गुह्य विद्या के गुरु ‘तेओ’ दम्पति से इसकी विधिवत शिक्षा ली। इससे उनमें कहीं भी प्रकट होने तथा सूक्ष्म जगत की घटनाओं के बारे में जानने की क्षमता आ गयी।
1904 में एक योगी ने उन्हें गीता का फ्रेंच अनुवाद दिया। इसे पढ़कर मीरा के मन में भारत और हिन्दू धर्म को जानने की जिज्ञासा बढ़ गयी। उन्हें किसी ने एक गुह्य चक्र यह कहकर दिया था कि जो इसका रहस्य बताएगा, वही उनका पथ प्रदर्शक होगा। उन दिनों पांडिचेरी फ्रांस के अधीन था तथा एक सांसद वहां से चुना जाता था। मीरा के पति पॉल रिशार इसके लिए पांडिचेरी आये।
आते समय मीरा ने वह गुह्य चक्र उन्हें देकर किसी योगी से उसका रहस्य पूछने को कहा था। श्री अरविंद ने यह रहस्य उन्हें बता दिया। जब पति ने वापस जाकर मीरा को यह कहा, तो मीरा तुरन्त पांडिचेरी के लिए चल दीं। 29 मार्च, 1914 को उन दोनों की भेंट हुई। श्री अरविंद उनका स्वागत करने के लिए आश्रम के द्वार पर खड़े थे। मीरा ने देखा कि वे ध्यान के समय जिस महामानव के दर्शन करती थीं, वह श्रीकृष्ण वस्तुतः श्री अरविन्द ही हैं।
मीरा एक वर्ष वहां रहकर फिर फ्रांस, जापान आदि गयीं। इसके बाद वे 24 अपै्रल, 1920 को सदा के लिए पांडिचेरी आ गयीं। नवम्बर 1926 में श्री अरविंद ने आश्रम का पूरा कार्यभार उन्हें सौंप दिया। उनके नेतृत्व में हजारों लोग आश्रम से जुडे़ तथा ओरोविल में ‘श्री अरविंद अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र’ जैसी कई नयी गतिविधियां प्रारम्भ हुईं, जो आज भी चल रही हैं।
श्रीमां का शरीर भले ही विदेशी था; पर उनकी आत्मा भारतीय थी। वे भारत को अपना असली देश तथा श्री अरविंद की महान शिक्षाओं को मूर्त रूप देना ही अपने जीवन का लक्ष्य मानती थीं। वे कहती थीं कि जगत का गुरु बनना ही भारत की नियति है। 17 नवम्बर, 1973 को अपनी देह त्यागकर वे सदा के लिए अपने पथ प्रदर्शक श्रीकृष्ण के चरणों में लीन हो गयीं।
(संदर्भ : हिन्दू विश्व तथा पांचजन्य)
nice
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