19 फरवरी/जन्म-दिवस
तपस्वी जीवन श्री गुरुजी श्री माधवराव गोलवलकर
माधव बचपन से ही अत्यधिक मेधावी छात्र थे। उन्होंने सभी परीक्षाएँ सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। कक्षा में हर प्रश्न का उत्तर वे सबसे पहले दे देते थे। अतः उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि जब कोई अन्य छात्र उत्तर नहीं दे पायेगा, तब ही वह बोलंेगे। एक बार उनके पास की कक्षा में गणित के एक प्रश्न का उत्तर जब किसी छात्र और अध्यापक को भी नहीं सूझा, तब माधव को बुलाकर वह प्रश्न हल किया गया।
वे अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकंे भी खूब पढ़ते थे। नागपुर के हिस्लाप क्रिश्चियन कॉलिज में प्रधानाचार्य श्री गार्डिनर बाइबिल पढ़ाते थे। एक बार माधव ने उन्हें ही गलत अध्याय का उद्धरण देने पर टोक दिया। जब बाइबिल मँगाकर देखी गयी, तो माधव की बात ठीक थी। इसके अतिरिक्त हॉकी व टेनिस का खेल तथा सितार एवं बाँसुरीवादन भी माधव के प्रिय विषय थे।
उच्च शिक्षा के लिए काशी जाने पर उनका सम्पर्क संघ से हुआ। वे नियमित रूप से शाखा पर जाने लगे। जब डा. हेडगेवार काशी आये, तो उनसे वार्तालाप में माधव का संघ के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया। एम-एस.सी. करने के बाद वे शोधकार्य के लिए मद्रास गये; पर वहाँ का मौसम अनुकूल न आने के कारण वे काशी विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन गये।
उनके मधुर व्यवहार तथा पढ़ाने की अद्भुत शैली के कारण सब उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे और फिर तो यही नाम उनकी पहचान बन गया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी भी उनसे बहुत प्रेम करते थे। कुछ समय काशी रहकर वे नागपुर आ गये और कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन दिनों उनका सम्पर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और वे एक दिन चुपचाप बंगाल के सारगाछी आश्रम चले गये। वहाँ उन्होंने विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानन्द जी से दीक्षा ली।
स्वामी जी के देहान्त के बाद वे नागपुर लौट आये तथा फिर पूरी शक्ति से संघ कार्य में लग गये। उनकी योग्यता देखकर डा0 हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया। अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने। उन्होंने संघ कार्य को गति देने के लिए अपनी पूरी शक्ति झांेक दी।
1947 में देश आजाद हुआ; पर उसे विभाजन का दंश भी झेलना पड़ा। 1948 में गांधी जी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। श्री गुरुजी को जेल में डाल दिया गया; पर उन्होंने धैर्य से सब समस्याओं को झेला और संघ तथा देश को सही दिशा दी। इससे सब ओर उनकी ख्याति फैल गयी। संघ-कार्य भी देश के हर जिले में पहुँच गया।
श्री गुरुजी का धर्मग्रन्थों एवं हिन्दू दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया। 1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये। शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ तो हुआ; पर पूरी तरह नहीं। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे; पर शरीर का अपना कुछ धर्म होता है। उसे निभाते हुए श्री गुरुजी ने 5 जून, 1973 को रात्रि में शरीर छोड़ दिया।
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19 फरवरी/जन्म-दिवस
वैश्विक समन्वयक माधवराव बनहट्टी
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री माधवराव बनहट्टी का जन्म 19 फरवरी, 1927 को नागपुर में हुआ था। उनके पिताजी नागपुर विद्यापीठ में मराठी साहित्य के प्राध्यापक थे। माधवराव सब संतानों में बड़े थे। 1945 में बी.एस-सी. करने के बाद उन्होंने एक वर्ष डाक-तार विभाग में नौकरी की। फिर उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया। इससे नाराज होकर उनके पिताजी ने श्री गुरुजी को बहुत कड़ी बातें कहीं। उस समय माधव की अवस्था 19 वर्ष थी।
माधवराव को सर्वप्रथम बंगाल के बांकुड़ा जिले में भेजा गया। वहां वे कार्यकर्ताओं में ‘माधव दा’ के नाम से लोकप्रिय हो गये। तीन साल में उन्होंने स्थानीय भाषा, भूषा और खानपान अपना लिया। उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे बंगाल के मूल निवासी नहीं हैं।
एक बार उनके माता-पिता तीर्थयात्रा हेतु बंगाल गये। जिस दिन वे कोलकाता में थे, उस दिन वहां ‘शहीद मीनार’ पर श्री गुरुजी का कार्यक्रम हो रहा था। उसमें 10,000 गणवेशधारी स्वयंसेवक तथा हजारों नागरिक उपस्थित थे। इससे उन्हें बहुत संतोष हुआ कि उनके पुत्र ने एक श्रेष्ठ कार्य के लिए अपना जीवन लगाया है।
1947 में पूर्वी पाकिस्तान से आये हिन्दू विस्थापितों की सेवार्थ ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ बनाई गयी। माधव दा 1949 से 52 तक उसके कार्यालय सचिव रहे। कोलकाता से संघ की ओर से ‘स्वस्तिका’ नामक साप्ताहिक बंगला पत्र प्रकाशित होता है। 1953 से 58 तक वे ‘स्वस्तिका प्रकाशन न्यास’ के सचिव रहे। 1959-60 में उन्हें चौबीस परगना विभाग का काम दिया गया। 1975 तक उन्होंने विभाग और संभाग प्रचारक की जिम्मेदारी संभाली।
1977 में माधव दा को मॉरीशस भेजा गया। 12 वर्ष वहां रहकर उन्होंने मॉरीशस तथा दक्षिण अफ्रीका में संघ कार्य की नींव मजबूत की। 1989-90 में वे छह माह तक बंगाल के सह प्रांत प्रचारक रहे। इसके बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद में पूर्वांचल क्षेत्र (बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा असम आदि) के संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। 1997 में वे विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त मंत्री के नाते दिल्ली आ गये। इस समय उन पर विदेश विभाग का काम था।
कुछ समय बाद उन्हें केन्द्रीय मंत्री की जिम्मेदारी तथा वैश्विक समन्वय का काम दिया गया। विश्व भर में संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद के काम के कई आयाम हैं। कार्यकर्ता भी सब ओर हैं; पर दूरी और व्यस्तता अधिक होने से भारत जैसी दैनिक शाखाएं नहीं हैं। ऐसे में दुनिया भर के काम और कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय बनाना बहुत कठिन काम था।
रात में जागकर विदेश से आने वाले कार्यकर्ताओं के फोन सुनना, उनके पत्रों के समय से उत्तर देना, भारत आने पर उनका सहयोग तथा विदेश जाने वाले कार्यकर्ताओं को उचित मार्गदर्शन दिलाना आदि काम उन्होंने दो वर्ष तक बहुत कुशलता से निभाये। इस बीच उन्हें गुर्दे का कष्ट प्रारम्भ हो गया। पहले दिल्ली और फिर मुंबई के इलाज से विशेष लाभ नहीं हुआ। अतः वे अपने भाई के पास पुणे में रहकर प्राकृतिक इलाज कराने लगे। एक अपै्रल, 2000 की प्रातः शाखा से लौटकर उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और थोड़ी ही देर में वे चल बसे।
प्रसिद्धि से सदा दूर रहने वाले माधव दा के देहांत के बाद बहुत ढूंढने पर भी उनका चित्र कहीं नहीं मिला। अंततः मॉरीशस से मंगाकर उनका एक चित्र कोलकाता कार्यालय में लगाया गया।
(संदर्भ : पांचजन्य 16.4.2000 तथा संघ गंगोत्री)
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