4 फरवरी/इतिहास-स्मृति
गढ़ आया, पर सिंह गया
सिंहगढ़ का नाम आते ही छत्रपति शिवाजी के वीर सेनानी तानाजी मालसुरे की याद आती है। तानाजी ने उस दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग को जीता, जो ‘वसंत पंचमी’ पर उनके बलिदान का अर्घ्य पाकर ‘सिंहगढ़’ कहलाया।
शिवाजी को एक बार सन्धिस्वरूप 23 किले मुगलों को देने पड़े थे। इनमें से कोण्डाणा सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। एक बार माँ जीजाबाई ने शिवाजी को कहा कि प्रातःकाल सूर्य भगवान को अर्घ्य देते समय कोण्डाणा पर फहराता हरा झण्डा आँखों को बहुत चुभता है। शिवाजी ने सिर झुकाकर कहा - मां, आपकी इच्छा मैं समझ गया। शीघ्र ही आपका आदेश पूरा होगा।
कोण्डाणा को जीतना आसान न था; पर शिवाजी के शब्दकोष में असम्भव शब्द नहीं था। उनके पास एक से एक साहसी योद्धाओं की भरमार थी। वे इस बारे में सोच ही रहे थे कि उनमें से सिरमौर तानाजी मालसुरे दरबार में आये। शिवाजी ने उन्हें देखते ही कहा - तानाजी, आज सुबह ही मैं आपको याद कर रहा था। माता की इच्छा कोण्डाणा को फिर से अपने अधीन करने की है।
तानाजी ने ‘जो आज्ञा’ कहकर सिर झुका लिया। यद्यपि तानाजी उस समय अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण महाराज को देने के लिए आये थे; पर उन्होंने मन में कहा - पहले कोण्डाणा विजय, फिर रायबा का विवाह; पहले देश, फिर घर। वे योजना बनाने में जुट गये। 4 फरवरी, 1670 की रात्रि इसके लिए निश्चित की गयी।
कोण्डाणा पर मुगलों की ओर से राजपूत सेनानी उदयभानु 1,500 सैनिकों के साथ तैनात था। तानाजी ने अपने भाई सूर्याजी और 500 वीर सैनिकों को साथ लिया। दुर्ग के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा रहता था। पीछे बहुत घना जंगल और ऊँची पहाड़ी थी। पहाड़ी से गिरने का अर्थ था निश्चित मृत्यु। अतः इस ओर सुरक्षा बहुत कम रहती थी। तानाजी ने इसी मार्ग को चुना।
रात में वे सैनिकों के साथ पहाड़ी के नीचे पहुँच गये। उन्होंने ‘यशवन्त’ नामक गोह को ऊपर फेंका। उसकी सहायता से कुछ सैनिक बुर्ज पर चढ़ गये। उन्होंने अपनी कमर में बँधे रस्से नीचे लटका दिये। इस प्रकार 300 सैनिक ऊपर आ गये। शेष 200 ने मुख्य द्वार पर मोर्चा लगा लिया।
ऊपर पहुँचते ही असावधान अवस्था में खड़े सुरक्षा सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया गया। इस पर शोर मच गया। उदयभानु और उसके साथी भी तलवारें लेकर भिड़ गये। इसी बीच सूर्याजी ने मुख्य द्वार को अन्दर से खोल दिया। इससे शेष सैनिक भी अन्दर आ गये और पूरी ताकत से युद्ध होने लगा।
यद्यपि तानाजी लड़ते-लड़ते बहुत घायल हो गये थे; पर उनकी इच्छा मुगलों के चाकर उदयभानु को अपने हाथों से दण्ड देने की थी। जैसे ही वह दिखायी दिया, तानाजी उस पर कूद पड़े। दोनों में भयानक संग्राम होने लगा। उदयभानु भी कम वीर नहीं था। उसकी तलवार के वार से तानाजी की ढाल कट गयी। इस पर तानाजी हाथ पर कपड़ा लपेट कर लड़ने लगे; पर अन्ततः तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए। यह देख मामा शेलार ने अपनी तलवार के भीषण वार से उदयभानु को यमलोक पहुँचा दिया। ताना जी और उदयभानु, दोनों एक साथ धरती माता की गोद में सो गये।
जब शिवाजी को यह समाचार मिला, तो उन्होंने भरे गले से कहा - गढ़ तो आया; पर मेरा सिंह चला गया। तब से इस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया। किले के द्वार पर तानाजी की भव्य मूर्ति तथा समाधि निजी कार्य से देशकार्य को अधिक महत्त्व देने वाले उस वीर की सदा याद दिलाती है।
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4 फरवरी/बलिदान-दिवस
धर्मवीर हकीकतराय
भारत वह वीरभूमि है, जहाँ हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वालों में छोटे बच्चे भी पीछे नहीं रहे। 1719 में स्यालकोट (वर्त्तमान पाकिस्तान) के निकट एक ग्राम में श्री भागमल खत्री के घर जन्मा हकीकतराय ऐसा ही एक धर्मवीर था।
हकीकतराय के माता-पिता धर्मप्रेमी थे। अतः बालपन से ही उसकी रुचि अपने पवित्र धर्म के प्रति जाग्रत हो गयी। उसने छोटी अवस्था में ही अच्छी संस्कृत सीख ली। उन दिनों भारत में मुस्लिम शासन था। अतः अरबी-फारसी भाषा जानने वालों को महत्त्व मिलता था। इसी से हकीकत के पिता ने 10 वर्ष की अवस्था में फारसी पढ़ने के लिए उसे एक मदरसे में भेज दिया। बुद्धिमान हकीकत वहाँ भी सबसे आगे रहता था। इससे अन्य मुस्लिम छात्र उससे जलने लगे। वे प्रायः उसे नीचा दिखाने का प्रयास करते थे; पर हकीकत सदा अध्ययन में ही लगा रहता था।
एक बार मौलवी को किसी काम से दूसरे गाँव जाना था। उन्होंने बच्चों को पहाड़े याद करने को कहा और स्वयं चले गये। उनके जाते ही सब छात्र खेलने लगे; पर हकीकत एक ओर बैठकर पहाड़े याद करता रहा। यह देखकर मुस्लिम छात्र उसे परेशान करने लगे। इसके बाद भी जब हकीकत विचलित नहीं हुआ, तो एक छात्र ने उसकी पुस्तक छीन ली।
यह देखकर हकीकत बोला - तुम्हें भवानी माँ की कसम है, मेरी पुस्तक लौटा दो। इस पर वह मुस्लिम छात्र बोला - तेरी भवानी माँ की ऐसी की तैसी। हकीकत ने कहा - खबरदार, जो हमारी देवी के प्रति ऐसे शब्द बोले। यदि मैं तुम्हारे पैगम्बर की बेटी फातिमा बी के लिए ऐसा कहूँ, तो तुम्हें कैसा लगेगा ? लेकिन वह तो लड़ने पर उतारू था। अतः हकीकत उसकी छाती पर चढ़ बैठा और मुक्कों से उसके चेहरे का नक्शा बदल दिया। उसका रौद्र रूप देखकर बाकी छात्र डर कर चुपचाप बैठ गये।
थोड़ी देर में मौलवी लौट आये। मुस्लिम छात्रों ने नमक-मिर्च लगाकर सारी घटना उन्हें बतायी। इस पर मौलवी ने हकीकत की पिटाई की और उसे सजा के लिए काजी के पास ले गये। काजी ने इस सारे विवाद को लाहौर के बड़े इमाम के पास भेज दिया। उसने सारी बात सुनकर निर्णय दिया कि हकीकत ने इस्लाम का अपमान किया है। अतः उसे मृत्युदण्ड मिलेगा; पर यदि वह मुसलमान बन जाये, तो उसे क्षमा किया जा सकता है।
बालवीर हकीकत ने सिर ऊँचा कर कहा - मैंने हिन्दू धर्म में जन्म लिया है और हिन्दू धर्म में ही मरूँगा। मौलवियों ने उसे और भी कई तरह के प्रलोभन दिये। हकीकत के माता-पिता और पत्नी भी उसे धर्म बदलने को कहने लगे, जिससे वह उनकी आँखों के सामने तो रहे; पर हकीकत ने स्पष्ट कह दिया कि व्यक्ति का शरीर मरता है, आत्मा नहीं। अतः मृत्यु के भय से मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म का त्याग नहीं करूँगा।
अन्ततः 4 फरवरी, 1734 (वसन्त पंचमी) को उस धर्मप्रेमी बालक का सिर काट दिया गया। जब जल्लाद सिर काटने के लिए बढ़ा, तो हकीकतराय के तेजस्वी मुखमण्डल को देखकर उसके हाथ से तलवार छूट गयी। इस पर हकीकत ने उसे अपना कर्त्तव्य पूरा करने को कहा। कहते हैं कि सिर कटने के बाद धरती पर न गिर कर आकाश मार्ग से सीधा स्वर्ग में चला गया। उसी स्मृति में वसन्त पंचमी को आज भी पतंगें उड़ाई जाती हैं।
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4 फरवरी/जन्म दिवस
राजपथ से रामपथ पर - आचार्य गिरिराज किशोर
विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक आचार्य गिरिराज किशोर का जीवन बहुआयामी था। उनका जन्म चार फरवरी, 1920 को एटा (उ.प्र.) के मिसौली गांव में श्री श्यामलाल एवं श्रीमती अयोध्यादेवी के घर में मंझले पुत्र के रूप में हुआ। हाथरस और अलीगढ़ के बाद उन्होंने आगरा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगरा में श्री दीनदयाल उपाध्याय और श्री भव जुगादे के माध्यम से वे स्वयंसेवक बने और फिर उन्होंने संघ के लिए ही जीवन समर्पित कर दिया।
प्रचारक के नाते आचार्य जी मैनपुरी, आगरा, भरतपुर, धौलपुर आदि में रहे। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर वे मैनपुरी, आगरा, बरेली तथा बनारस की जेल में 13 महीने तक बंद रहे। वहां से छूटने के बाद संघ कार्य के साथ ही आचार्य जी ने बी.ए. तथा इतिहास, हिन्दी व राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। साहित्य रत्न और संस्कृत की प्रथमा परीक्षा भी उन्होंने उत्तीर्ण कर ली। 1949 से 58 तक वे उन्नाव, आगरा, जालौन तथा उड़ीसा में प्रचारक रहे।
इसी दौरान उनके छोटे भाई वीरेन्द्र की अचानक मृत्यु हो गयी। ऐसे में परिवार की आर्थिक दशा संभालने हेतु वे भिण्ड (म.प्र.) के अड़ोखर कॉलेज में सीधे प्राचार्य बना दिये गये। इस काल में विद्यालय का चहुंमुखी विकास हुआ। एक बार डाकुओं ने छात्रावास पर धावा बोलकर कुछ छात्रों का अपहरण कर लिया। आचार्य जी ने जान पर खेलकर एक छात्र की रक्षा की। इससे चारों ओर वे विख्यात हो गये। यहां तक कि डाकू भी उनका सम्मान करने लगे।
आचार्य जी की रुचि सार्वजनिक जीवन में देखकर संघ ने उन्हें अ.भा. विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और फिर संगठन मंत्री बनाया। नौकरी छोड़कर वे विद्यार्थी परिषद को सुदृढ़ करने लगे। उनका केन्द्र दिल्ली था। उसी समय दिल्ली वि.वि. में पहली बार विद्यार्थी परिषद ने अध्यक्ष पद जीता। फिर आचार्य जी को भारतीय जनसंघ का संगठन मंत्री बनाकर राजस्थान भेजा गया। आपातकाल में वे 15 मास भरतपुर, जोधपुर और जयपुर जेल में रहे।
1979 में ‘मीनाक्षीपुरम कांड’ ने पूरे देश में हलचल मचा दी। वहां गांव के सभी 3,000 हिन्दू एक साथ मुसलमान बन गये। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इससे चिंतित होकर डा. कर्णसिंह को कुछ करने को कहा। उन्होंने संघ से मिलकर ‘विराट हिन्दू समाज’ नामक संस्था बनायी। संघ की ओर से श्री अशोक सिंहल इसमें लगे। दिल्ली तथा देश के अनेक भागों में विशाल कार्यक्रम हुए। मथुरा के ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ की जिम्मेदारी आचार्य जी पर थी; पर धीरे-धीरे संघ के ध्यान में आया कि इंदिरा गांधी इससे अपनी राजनीति साधना चाहती हैं। अतः संघ ने हाथ खींच लिया। ऐसा होते ही वह संस्था भी ठप्प हो गयी। इसके बाद 1982 में अशोक जी तथा 1983 में आचार्य जी को ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के काम में लगा दिया गया।
इन दोनों के नेतृत्व में संस्कृति रक्षा योजना, एकात्मता यज्ञ यात्रा, राम जानकी यात्रा, रामशिला पूजन, राम ज्योति अभियान, राममंदिर का शिलान्यास और फिर बाबरी ढांचे के ध्वंस आदि ने वि.हि.प. को नयी ऊंचाइयां प्रदान कीं। संगठन विस्तार के लिए आचार्य जी ने इंग्लैंड, हालैंड, बेल्जियम, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, रूस, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, इटली, मारीशस, मोरक्को, गुयाना, नैरोबी, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, सिंगापुर, जापान, थाइलैंड आदि देशों की यात्रा की।
अपनी बात पर सदा दृढ़ रहने वाले आचार्य जी के मीडिया से बहुत मधुर संबंध रहते थे। 13 जुलाई, 2014 (रविवार) को वृद्धावस्था के कारण 95 वर्ष की सुदीर्घ आयु में उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति अंत तक बहुत अच्छी थी तथा वे सबसे बात भी करते थे। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र और फिर ‘दधीचि देहदान समिति’ के माध्यम से पूरी देह दिल्ली के आर्मी मैडिकल कॉलिज को चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के उपयोग हेतु दान कर दी गयी।
[संदर्भ - राजपथ से रामपथ की ओर, लेखक ब्रजगोपाल राय चंचल]
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4 फरवरी/जन्म-दिवस
देश राग का सर्वोत्तम स्वर पंडित भीमसेन जोशी
1985 में दूरदर्शन पर अनेक कलाकारों को मिलाकर बना कार्यक्रम‘देश-राग’ बहुत लोकप्रिय हुआ था। सुरेश माथुर द्वारा लिखित गीत के बोल थे,‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा।’’ उगते सूर्य की लालिमा, सागर के अनंत विस्तार और झरनों के कलकल निनाद के बीच जो धीर-गंभीर स्वर और चेहरा दूरदर्शन पर प्रकट होता था, वह था पंडित भीमसेन जोशी का। इस गीत की मूल धुन भी उन्होंने ही बनाई थी। राग भैरवी में निबद्ध इस गीत ने शास्त्रीय संगीत एवं भीमसेन जी को पूरे भारत में लोकप्रिय कर दिया।
भीमसेन जी का जन्म कर्नाटक के धारवाड़ जिले में स्थित एक छोटे नगर गडग में चार फरवरी, 1922 को एक अध्यापक श्री गुरुराज जोशी के घर में हुआ था। अपनी माता जी के भजन और दादाजी के कीर्तन सुनकर इनकी रुचि भी गीत और संगीत की ओर हो गयी। एक बार गांव का एक दुकानदार ‘किराना घराने’ के संस्थापक अब्दुल करीम खां के कुछ रिकार्ड लाया। उन्हें सुनकर भीमसेन ने निश्चय कर लिया कि उन्हें ऐसा ही गायक बनना है।
1932 में गडग में अब्दुल करीम खां के शिष्य प्रसिद्ध गायक रामभाऊ कुंदगोलकर (सवाई गंधर्व) के कार्यक्रम से प्रभावित होकर बालक भीमसेन ने घर छोड़ दिया। कई महीने तक खाली जेब, बिना टिकट घूमते हुए उन्होंने जालंधर, लखनऊ, रामपुर, कोलकाता, बीजापुर, ग्वालियर आदि में संगीत सीखा। इसके बाद वे भाग्यवश सवाई गंधर्व के पास ही पहुंच गये। सवाई गंधर्व ने इन्हें शिष्य बनाकर पूरे मनोयोग से गायन सिखाया।
धीरे-धीरे गीत और संगीत भीमसेन जी के जीवन की साधना बन गयी। 1946 में अपने गुरु सवाई गंधर्व के 60वें जन्मदिन पर पुणे में हुए कार्यक्रम से ये प्रसिद्ध हुए। फिर तो देश भर में इन्हें बुलाया जाने लगा। अब लोग इन्हें अब्दुल करीम खां और सवाई गंधर्व से भी बड़ा गायक मानने लगे; पर भीमसेन जी सदा विनम्र बने रहे। किराना घराना भावना प्रधान माना जाता है; पर भीमसेन जी ने उसमें शक्ति का संचार कर नया रूप दे दिया।
बहुभाषी भीमसेन जी मुख्यतः खयाल और भजन गाते थे। अभंग गाते समय वे मराठी, जोगिया राग गाते समय पंजाबी, वचन गाते समय कन्नड़भाषी और मीरा या सूर के पद गाते समय हिन्दीभाषी लगते थे। उन्होंने श्री हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित रविशंकर तथा डा0 बाल मुरलीकृष्ण जैसे श्रेष्ठ संगीतकारों के साथ जुगलबंदी की। शुद्ध कल्याण उनका सबसे प्रिय राग था। उन्होंने कई राग मिलाकर कलाश्री और ललित भटियार जैसे कुछ नये राग भी बनाये। उन्होंने कुछ फिल्मों में भी अपने गायन और संगीत विधा का प्रदर्शन किया।
वे पुणे में अपने गुरु की स्मृति में प्रतिवर्ष सवाई गंधर्व महोत्सव करते थे। इसमें विख्यात और नये दोनों ही तरह के कलाकारों को बुलाया जाता था। विश्व पटल पर स्थापित ऐसे कई कलाकार हैं, जो इस समारोह से ही प्रसिद्ध हुए। इसमें पूरे महाराष्ट्र से श्रोता आते हैं। कई बार तो गायक के साथ संगत करने वाले को हल्का पड़ते देख भीमसेन जी स्वयं तानपूरा लेकर बैठ जाते थे।
शास्त्रीय गायन के पर्याय पंडित भीमसेन जी को सैकड़ों पुरस्कार मिले। उन्हें पदम्श्री, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण, तानसेन सम्मान और 2008 ई. में ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया। एक बार प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें राज्यसभा में भेजना चाहा, तो उन्होंने अपने दोनों तानपूरों की ओर संकेत कर कहा कि मेरे लिए ये दोनों ही लोकसभा और राज्यसभा हैं।
देश-राग का यह सर्वोत्तम स्वर 24 जनवरी, 2011 को सदा के लिए मौन हो गया; पर अपने गायन द्वारा वे सदा अमर रहेंगे ।
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