13 फरवरी/पुण्य-तिथि
अल्पाहारी व अल्पभाषी वसंतराव केलकर
वसंतराव केलकर कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के निवासी थे। यों तो उनका पूरा नाम दिगम्बर गोपाल केलकर था; पर यह नाम केवल विद्यालय के प्रमाण पत्रों तक ही सीमित रहा। उनके पिताजी कोल्हापुर में पुरोहित थे। उनके साथ वसंतराव भी कभी-कभी जाते थे। संघ से संपर्क होने के बाद ऐसे पोथीवाचन और भोजन से मिलने वाली दक्षिणा राशि को वे गुरुदक्षिणा में अर्पण कर देते थे।
कोल्हापुर से बी.ए. कर दो-तीन वर्ष तक उन्होंने अपने एक मित्र के टूरिंग टाकीज में काम किया। फिर उन्होंने पुणे से बी.कॉम. की परीक्षा दी और 1955 में प्रचारक बन गये। छात्र जीवन में भी खेलकूद और मौज-मस्ती के बदले पठन-पाठन, चिंतन और रामायण-महाभारत आदि पौराणिक ग्रंथ पढ़ने में उनकी अधिक रुचि थी। प्रचारक जीवन में भी उनका यह स्वभाव बना रहा। इन धर्मग्रन्थों में से टिप्पणियां तैयार कर उन्होंने कई पुस्तकें भी बनाईं।
दो वर्ष चिपलूण तहसील प्रचारक रहने के बाद वे पांच साल रत्नागिरि जिला और फिर अगले पांच साल कोल्हापुर विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद कई वर्ष वे महाराष्ट्र के सहप्रांत प्रचारक रहे। 1990 से 92 तक उनका स्वास्थ्य खराब रहा। ठीक होने पर 1992 से 97 तक वे गुजरात और महाराष्ट्र के क्षेत्र प्रचारक रहे; पर एक बार फिर उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। पहले उंगलियां और फिर पूरा बायां हाथ ही लकवाग्रस्त हो गया। इसका उनके मन और मस्तिष्क पर भी असर पड़ा और वे एक बार फिर दायित्वमुक्त हो गये।
कम बोलने और कम खाने वाले वसंतराव का जीवन बड़ा नियमित था। वे प्रतिदिन योगाभ्यास व ध्यान करते थे। रेल में यात्रा करते समय अपनी बर्थ पर भी वे कुछ आसन कर लेते थे। पढ़ने में रुचि होने के कारण उन्होंने आयुर्वेद, होम्योपैथी, एक्यूप्रेशर, एक्यूपंक्चर और प्राकृतिक चिकित्सा की कई पुस्तकें पढ़ीं और उनके प्रयोग स्वयं पर किये।
उनकी वाणी बहुत मधुर थी; पर हस्तलेख खराब होने के कारण वे पत्र-व्यवहार बहुत कम करते थे। कहीं भी बौद्धिक देने से पूर्व वे उसकी अच्छी तैयारी करते थे। उनके बौद्धिक में अंग्रेजी और संस्कृत के उद्धरणों के साथ ही गीत की कुछ पंक्तियां भी शामिल रहती थीं।
आपातकाल में पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। भूमिगत रहकर सत्याग्रह का उन्होंने सफल संचालन किया। आपातकाल के बाद वे पूर्ववत संघ के काम में लग गये। शाखा के लिए उनके मन में अतीव श्रद्धा थी। छात्र जीवन में एक प्रतिज्ञा कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि जब इसे आजीवन निभाने की मानसिकता होगी, तब ही प्रतिज्ञा लूंगा, और उन्होंने कुछ समय बाद ही प्रतिज्ञा ली।
प्रवास संघ कार्य का प्राण है। अतः वे किसी भी परिस्थिति में इसे स्थगित नहीं करते थे। 1974 में महाराष्ट्र के सभी गांव और घरों तक शिवसंदेश पत्रिका पहुंचाने तथा 1983 में पुणे के पास तलजाई में सम्पन्न हुए अति भव्य प्रांतीय शिविर के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।
स्वास्थ्य लाभ के लिए वे पुणे, दापोली, डोंबिवली, लातूर आदि में रहे; पर ईश्वर की इच्छानुसार 13 फरवरी, 2001 को उनका देहांत हो गया। जिन दिनों वे रत्नागिरि में जिला प्रचारक थे, तब वहां के कार्यकर्ताओं ने उनसे कहा कि प्रचारक जीवन से निवृत्त होकर आप यहीं रहें। वसंतराव की स्वीकृति होने पर उन्होंने दापोली में एक मैडिकल स्टोर खोलकर उसे चलाने की जिम्मेदारी एक कार्यकर्ता को दे दी। यह स्टोर बहुत सफल हुआ। वसंतराव की इच्छानुसार उनके देहांत के बाद उससे प्राप्त 11 लाख रु0 का लाभांश प्रांत संघचालक, कार्यवाह और प्रचारक के सुझाव पर डा0 हेडगेवार स्मारक निधि में दे दिया गया।
(संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग दो)
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13 फरवरी/बलिदान-दिवस
हिन्दुत्व-प्रेमी रिक्शाचालक
तमिलनाडु राज्य में एक समय हिन्दू धर्म विरोध की लहर बहुत प्रबल थी। वहां राजनीति ने समाज में भरपूर जातीय विभाजन पैदा किया है। अतः बड़ी संख्या में लोग हिन्दुत्व के प्रसार का अर्थ उत्तर भारत, हिन्दी तथा ब्राह्मणों के प्रभाव का प्रसार समझते थे। वहां ईसाई और इस्लामी शक्तियां भी राजनीति में काफी प्रभाव रखती थीं। पैसे की उनके पास कोई कमी नहीं थी। उनका हित भी इसी में था कि हिन्दू शक्तियां प्रभावी न हों।
लेकिन इस सबसे दूर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और हिन्दू मुन्नानी जैसे संगठन समाज के हर वर्ग को संगठित कर रहे थे। धीरे-धीरे उनका प्रभाव और काम बढ़ रहा था। मीनाक्षीपुरम् में हुए सामूहिक इस्लामीकरण से सभी जाति और वर्ग के हिन्दुओं के मन उद्वेलित हो उठे। वे इस माहौल को बदलना चाहते थे। ऐसे समय में हिन्दू संगठनों ने पूरे राज्य में बड़े स्तर पर हिन्दू सम्मेलन आयोजित किये। इनमें जातिभेद से ऊपर उठकर हजारों हिन्दू एकता और धर्मरक्षा की शपथ लेते थे। इससे हिन्दू विरोधी राजनेताओं के साथ ही इस्लामी और ईसाई शक्तियों के पेट में दर्द होने लगा।
इसी क्रम में 13 फरवरी, 1983 को कन्याकुमारी जिले के नागरकोइल में एक विशाल हिन्दू सम्मेलन रखा गया। इसका व्यापक प्रचार-प्रसार देखकर आठ फरवरी को ‘क्रिश्चियन डैमोक्रेटिक फ्रंट’ के नेता जिलाधिकारी से मिले और इस सम्मेलन पर प्रतिबंध लगाने को कहा; पर जिलाधिकारी नहीं माने। उन्होंने सावधानी के लिए सम्मेलन के नेताओं को बुलाकर नारे, शोभायात्रा तथा अन्य व्यवस्थाओं पर चर्चा की, जिससे वातावरण ठीक रहे। आयोजकों ने उन्हें हर तरह के सहयोग का आश्वासन दिया।
लेकिन ईसाई नेताओं ने हार नहीं मानी। उन्होंने ऊपर से राज्य शासन का दबाव जिलाधिकारी पर डलवाया। अतः अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के 11 फरवरी की आधी रात में पूरे जिले में धारा 144 लगाकर हिन्दू नेताओं की धरपकड़ शुरू कर दी गयी। 12 फरवरी को हिन्दू मुन्नानी के अध्यक्ष श्री थानुलिंग नाडार सहित 56 नेता पकड़ लिये गये। नागरकोइल में आने वाले हर व्यक्ति की तलाशी होने लगी। सम्मेलन में आ रहे वाहनों को 10 कि.मी. दूर ही रोक दिया गया। फिर भी हजारों लोग प्रतिबंध तोड़कर शहर में आ गये।
13 फरवरी को 1,500 लोगों ने गिरफ्तारी दी। फिर भी लगातार लोग आ रहे थे। सम्मेलन में 30,000 लोगों के आने की संभावना थी। इतने लोगों को गिरफ्तार करना असंभव था। अतः शासन ने सम्मेलन के नेताओं से आग्रह किया कि वे ही लोगों को वापस जाने को कहें; पर उनकी अपील से पहले ही पुलिस ने लाठी और गोली बरसानी प्रारम्भ कर दी। सैकड़ों लोगों ने सम्मेलन स्थल के पास नागराज मंदिर में शरण ली। पुलिस ने वहां भी घुसकर उन्हें पीटा। कई लोगों के हाथ-पैर टूट गये; पर पुलिस को दया नहीं आयी।
कुमार नामक एक युवा रिक्शाचालक से यह सब अत्याचार नहीं देखा गया। उसने पुलिस को खुली चुनौती दी कि या तो उसे गिरफ्तार कर लें या गोली मार दें। पुलिस के सिर पर खून सवार था। उसने उस निर्धन रिक्शाचालक को बहुत पास से ही गोली मार दी। वह ‘ॐ काली जय काली’ का उद्घोष करता हुआ वहीं गिर गया और प्राण त्याग दिये।
शीघ्र ही यह समाचार पूरे राज्य में फैल गया। लोग राज्य सरकार पर थू-थू करने लगे। इस घटना से हिन्दुओं में नयी चेतना जाग्रत हुई। उन्होंने निश्चय किया कि अब वे अपमान नहीं सहेंगे और अपने अधिकारों का दमन नहीं होने देंगे। अतः इसके बाद होने वाले सभी हिन्दू सम्मेलन और अधिक उत्साह से सम्पन्न हुए। इस प्रकार नागरकोइल के उस निर्धन रिक्शाचालक का बलिदान तमिलनाडु के हिन्दू जागरण के इतिहास में निर्णायक सिद्ध हआ।
(संदर्भ : कृ.रू.सं.दर्शन, भाग छह)
Nice
जवाब देंहटाएंGood knowledge
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