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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

13 फरवरी/जन्म-दिवस भारत कोकिला सरोजिनी नायडू, परमंहस बाबा राममंगलदास


13 फरवरी/जन्म-दिवस


                 भारत कोकिला सरोजिनी नायडू

1917 से 1947 तक स्वाधीनता समर के हर कार्यक्रम में सक्रिय रहने सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 को भाग्यनगर (हैदराबाद, आंध्र प्रदेश) में हुआ था। वे आठ भाई-बहिनों में सबसे बड़ी थीं। उनके पिता श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय वहां के निजाम कॉलेज में रसायन वैज्ञानिक तथा माता श्रीमती वरदा सुन्दरी बंगला में कविता लिखती थीं। इसका प्रभाव सरोजिनी पर बालपन से ही पड़ा और वह भी कविता लिखने लगी।


उनके पिता चाहते थे कि वह गणित में प्रवीण बने; पर उनका मन कविता में लगता था। बुद्धिमान होने के कारण उन्होंने 12 वर्ष में ही कक्षा 12 की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्हें जितने अंक मिले, उतने तब तक किसी ने नहीं पाये थे। 13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अंग्रेजी में 1,300 पंक्तियों की कविता ‘झील की रानी’ तथा एक नाटक लिखा। उनके पिता ने इन कविताओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया। 


1895 में उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैंड गयीं। वहां भी पढ़ाई और काव्य साधना साथ-साथ चलती रही। 1898 में सेना में कार्यरत चिकित्सक डा0 गोविंद राजुलु नायडू से उनका विवाह हुआ। वे अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, गुजराती एवं तमिल की प्रखर वक्ता थीं। 1902 में कोलकाता में उनका ओजस्वी भाषण सुनकर श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें घर के एकान्त और काव्य जगत की कल्पनाओं से निकलकर सार्वजनिक जीवन में आने का सुझाव दिया।


1914 में इंग्लैंड में उनकी भेंट गांधी जी से हुई। वे उनके विचारों से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हो गयीं। एक कुशल सेनापति की भांति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय सत्याग्रह तथा संगठन दोनों क्षेत्रों में दिया।  उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा संचालित आंदोलन में भी काम किया। भारत में भी उन्होंने कई आंदोलनों का नेतृत्व किया तथा जेल गयीं। गांव हो या नगर, वे हर जगह जाकर जनता को जाग्रत करती थीं।  


उन्हें युवाओं तथा महिलाओं के बीच भाषण देना बहुत अच्छा लगता था। अब तक महिलाएं अपने घर और परिवार तक सीमित रहने के कारण स्वाधीनता आंदोलन से दूर ही रहती थीं; पर सरोजिनी नायडू के सक्रिय होने से वातावरण बदलने लगा। वे अपने मधुर कंठ से सभाओं में देशभक्ति से पूर्ण कविताएं पढ़ती थीं। इस कारण लोग उन्हें ‘भारत कोकिला’ कहने लगे। जलियांवाला बाग कांड के बाद उन्होंने ‘कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि वापस कर दी। 


राजनीति में सक्रियता से उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन गयी। 1925 में कानपुर के कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। इस प्रकार वे कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। साबरमती में एक स्वयंसेवक के नाते उन्होंने स्वाधीनता के प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। अतः गांधी जी उन पर बहुत विश्वास करते थे। 


1931 में लंदन में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में वे उन्हें भी प्रतिनिधि के नाते साथ ले गये थे। 1932 में जेल जाते समय आंदोलन को चलाते रहने का दायित्व उन्होंने सरोजिनी नायडू को ही दिया। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय वे गांधी जी के साथ आगा खां महल में बन्दी रहीं।


स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नेहरू जी के आग्रह पर वे उत्तर प्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं। इसी पद पर रहते हुए दो मार्च, 1949 को उनका देहांत हुआ। उन्होंने नारियों को जीवन के हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। इस नाते उनका योगदान भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है। 


(संदर्भ : विकीपीडिया एवं अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)

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13 फरवरी/जन्म-दिवस


                  परमंहस बाबा राममंगलदास


बाबा राममंगलदास उच्च कोटि के एक सिद्ध महात्मा थे। उनके मन में श्रीराम और श्री अयोध्या जी के प्रति अत्यधिक अनुराग था। उनका जन्म 13 फरवरी, 1893 को ग्राम ईसरबारा, जिला सीतापुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। पुत्र तथा पत्नी के अल्प समय में ही वियोग के कारण इनका मन संसार से विरक्त हो गया। अतः ये घर छोड़कर अयोध्या आ गये।


उन दिनों अयोध्या में एक सिद्ध सन्त बेनीमाधव जी रहते थे। राममंगलदास जी उनसे दीक्षा लेकर उनके बताये मार्ग से साधना करने लगे। कड़ी धूप में या भूसे के ढेर में गले तक बैठकर ये जप करते थे। कहते हैं कि हनुमान् जी ने इन्हें दर्शन दिये थे। इनके गुरुजी ने इनसे कहा कि अयोध्या प्रभु श्रीराम जी का घर है, अतः तुम यहाँ किसी से एक इ॰च भूमि दान में मत लेना। मृत्यु के समय तुम्हारे पास एक पैसा भी नहीं निकलना चाहिए। बाबा राममंगलदास जी ने उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन किया।


बाबा जी ने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उन्हें खेचरी विद्या सिद्ध थी। वे निर्धन-धनवान, स्त्री-पुरुष तथा सब धर्म वालों को एक दृष्टि से देखते थे तथा निर्धनों को सदा अन्न-वस्त्र वितरण करते रहते थे। आयुर्वेदिक दवा एवं जड़ी-बूटियों से उन्होंने कई असाध्य रोगियों को ठीक किया। दवा के साथ वे उन्हें श्रीराम नाम का जप करने को कहते थे। उनकी मान्यता थी कि लाभ तो जप से होता है, दवा उसमें कुछ सहायता अवश्य करती है।


एक बार एक महाशय आये और बोले, मैं किसी विद्वान से प्रभु चर्चा करना चाहता हूँ। बाबा जी ने कहा कि अयोध्या में सब विद्वान हैं, आप चाहे जिससे चर्चा कर लें। इसी समय उनका एक सेवक वहाँ आ गया। बाबा जी ने उन सज्जन से कहा कि फिलहाल आप इसी से चर्चा करें। इतना कहकर उन्होंने सेवक के सिर पर हाथ रखा। इसके बाद तो उस सेवक ने उन महाशय की सब शंकाओं का शास्त्रीय समाधान कर दिया। उन विद्वान सज्जन का अहंकार गल गया और वे बाबा जी के चरणों में गिर पड़े।


बाबा जी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं, पर वे उनका प्रदर्शन नहीं करते थे। उन्होंने निद्रा को जीत लिया था। वे कई वर्ष बिना सोये रहे। उन्हें अदृश्य होने की विद्या भी प्राप्त थी। प्रायः वे कहते थे कि माता-पिता की सेवा ईश्वर-सेवा से भी अधिक फलदायी है। असहाय, दीन-हीन और बीमार प्राणी की निःस्वार्थ सेवा से भगवान की प्राप्ति हो सकती है। 


बाबा जी के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से सन्त, महात्मा तथा गृहस्थ जन आते थे। वे सबको राम-नाम जपने का उपदेश देते थे। उनका जीवन बहुत सादा था। वे सदा बिना बिछौने की चौकी पर बैठते और सोते थे। अपने शरीर की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। प्रभु को भोग लगाकर वे सूखी रोटी और दाल प्रसाद रूप में ग्रहण करते थे। कितना भी कष्ट हो; पर वे सदा प्रसन्न ही रहते थे। यह उनका स्वभाव बन गया था।


वे कहते थे कि साधु का आचरण मर्यादित और त्यागमय होना चाहिए। वे आचरण की पवित्रता को सबसे बड़ी साधना मानते थे। 31 दिसम्बर, 1984 को परमहंस बाबा राममंगलदास जी ने श्री अयोध्या धाम में ही अपनी लीला समेट ली। बाबा द्वारा रचित ‘भक्त-भगवन्त चरितावली एवं चरितामृत’ नामक ग्रन्थ की गणना अध्यात्म क्षेत्र के महान् ग्रन्थ के रूप में की जाती है।

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