महर्षि दयानन्द सरस्वती एक परिचय
*(फाल्गुन कृष्ण दशमी/ जन्मोत्सव)*
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी (12 फरवरी,1824) को टंकारा में मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था. पिता का नाम कृष्ण जी लाल जी तिवारी और माता का नाम यशोदाबाई था. उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे.
स्वामी दयानन्द आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, तथा आर्य समाज के संस्थापक थे. उनके बचपन का नाम *मूलशंकर* था.
उन्होंने वेदों के प्रचार और आर्यावर्त को स्वतन्त्रता दिलाने के लिए मुम्बई में *आर्यसमाज* की स्थापना की. वे एक संन्यासी तथा एक चिन्तक थे. उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना. *वेदों की ओर लौटो* यह उनका प्रमुख नारा था.
स्वामी दयानंद ने वेदों का भाष्य किया इसलिए उन्हें *ऋषि* कहा जाता है क्योंकि *ऋषयो मन्त्र दृष्टारः* (वेदमन्त्रों के अर्थ का दृष्टा ऋषि होता है) उन्होने *कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास* को अपने दर्शन के *चार स्तम्भ* बनाया. उन्होने ही सबसे पहले 1876 में *स्वराज्य* का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया.
स्वामी दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, इनमें प्रमुख नाम हैं- *मादाम भिकाजी कामा,भगत सिंह पण्डित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, चौधरी छोटूराम पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, महादेव गोविंद रानडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय* इत्यादि.
स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने 1886 में *लाहौर* में *दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज* की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने 1901 में हरिद्वार के निकट *कांगड़ी* में *गुरुकुल* की स्थापना की.
शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड़ आया. उन्हें नया बोध हुआ. वे घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह *गुरु विरजानन्द* के पास पहुंचे. गुरुवर ने उन्हें *पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग* का अध्ययन कराया.
उन्होंने अपने गुरु जी को दक्षिणा के रूप में लोंग भेंट स्वरूप दिये लेकिन गुरु विरजानन्द ने दक्षिणा में दयानन्द से मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो. यही तुम्हारी गुरु दक्षिणा है.
उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करे. उन्होंने अन्तिम शिक्षा दी -मनुष्यकृत ग्रन्थों में ईश्वर और ऋषियों की निन्दा है, ऋषिकृत ग्रन्थों में नहीं. *वेद प्रमाण* हैं. इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना. उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की. उन्होंने हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पर *पाखण्ड खण्डिनी पताका* फहराई.
उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किये. *सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य* भूमिका सहित *चालीस पुस्तकों* की रचना और अनेक शास्त्रार्थों के रास्ते शास्त्रार्थ की वैदिक परम्परा को पुनः स्थापित करने का कार्य शंकराचार्य जी के पश्चात् महर्षि दयानन्द जी ने ही किया.
उन्होंने धर्म, अध्यात्म, वैदिक शिक्षा, भाषा, देश सेवा, समाज सेवा, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार सहित *समाज, संस्कृति, धर्म और अध्यात्म* के विकास के कार्यों को *यज्ञ* कहकर उन्हें सुकर्म की प्रतिष्ठा दी.
*मानव मूल्यों की स्थापना हेतु उन्होंने अपने जीवन को सन्देश के रूप में प्रतिष्ठित किया. उन्होंने अपने विरोधियों, हत्यारों और घृणा करने वालों को क्षमा किया।*
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