कहां तो तय था चराग़
दुष्यंत कुमार
कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिये
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहां दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिये
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