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रविवार, 9 मई 2021

कहां तो तय था चराग़ लेखक दुष्यंत कुमार

     कहां तो तय था चराग़

                          दुष्यंत कुमार

 कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिये

 कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

 

 यहां दरख़्तों के साये में धूप लगती है

 चलो यहां से चले और उम्र भर के लिये

 

 न हो क़मीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे

 ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

 

 वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

 मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिये

 

 

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