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बुधवार, 16 जून 2021

मानव धर्म क्या है?


मानव धर्म क्या है?


*मित्रों* मेरे विचार से मानव होने का अर्थ है ऐसा मनुष्य जो सारी उम्र मानवता की सेवा करे सम्पूर्ण जीवन अपनी सुख-सुविधाओं को पाने के लिए प्रयत्न करना मानव का धर्म नहीं है *मानव का जन्म मानवता की सेवा के लिए हुआ है* प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनि सेवा करने पर ज़ोर देते रहें हैं सेवा ऐसा भाव है जिसे करने वाला भी सुख पाता है और जिसकी की जाती है वह भी सुख पाता है *...*…


*सेवा से किसी का अहित नहीं होता बल्कि प्रेम के बंधन में बंध जाते हैं* मनुष्य सारी उम्र अपनी सुख-सुविधा के लिए प्रयासरत् रहता है इस प्रकार वह स्वार्थी हो जाता है ऐसे मनुष्य को मनुष्य की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता *जो मनुष्य दूसरे के दुःखों को दूर करने के उपाय किया करता है* वही सच्चा मनुष्य कहलाने का अधिकारी है वही जीवन सही अर्थों में मानव जीवन को सार्थकता देता है परोपकार, सेवाभाव, प्रेम, कर्मठता, दृढ़ निश्चयी एक मानव के जीवन को सार्थक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं *...*…


*मित्रों* इसीलिये हमें चाहिए कि इन गुणों को अपनाकर अपने जीवन को सार्थक बनायें और मानवता का कल्याण करें *असल में एकता और मेल के बिना संसार का काम चल नहीं सकता* हम पद-पद पर इस ऐक्य की तलाश में है और इसके बिना अनेक कष्टों का अनुभव करते हैं फिर वह संसार चाहे राजनीति का हो या धर्मनीति, समाजनीति, अर्थनीति का *...*…


यदि ऐक्य यानि एकता का लोप हो जाये तो प्रलय हो जायेगा संसार के बनाने वाले परमाणुओं, गुणों, तत्वों का एक दूसरे से अलग हो जाना ही तो प्रलय कहा जाता है कारण, उस दशा में कोई चीज ठहर सकती ही नहीं *यही कारण है कि विवेकी लोग शुरू से ही ऐक्य की तलाश में पड़े हैं और वह अंवेषण बराबर जारी है ...*… 


अनेक ने स्थूल, पृथ्वी आदि को परमाणुओं से या तो किसी ने समस्त स्थूल जगत को सत्त्व, रजस, तमस इन तीन गुणों से जोड़ दिया और कह दिया कि इनसे सम्यक कोई चीज नहीं *सूक्ष्म जगत में* मन व बुद्धि को इन्हीं तीन गुणों में मिला दिया ईश्वर और जीव के बारे में किसी ने सामीप्य और सान्निध्यक का भाव कायम किया तो किसी ने ईश्वर को जीव में ही मिला दिया और उसकी सत्ता ही मिटा डाली *...*…


इस प्रकार परमाणुओं से आरंभ कर प्रकृति (त्रिगुण) और पुरुष (जीव) इन दो को ही माना और शेष संसार का पर्यवसान इन्हीं में कर दिया *अंत में अद्वैतवाद का दर्शन आया* उसने प्रकृति और जीव का भी भेद मिटा दिया और दोनों को ही एक करके ब्रह्म के साथ मिलाया जब एकता का सूत्रपात हुआ तो उसका चरम पर्यवसान भी होना ही चाहिए जब तक दो पदार्थ रह जायेंगे दिक्कत बनी ही रहेगी उपनिषदों ने जो कहा है कि *द्वितीया द्वै भयं भवति* दो के रहने से ही सारी तकलीफें होती है *या???*


यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: l

तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: ll


जब सभी एक हो गए तो डर किसका? उसका मतलब यही है प्रतिद्वंद्वी को कायम करके चैन? *यदि आप संसार में प्रेम का पूरा प्रसार अबाध रूप से चाहते हैं तो मिलना ही होगा* क्योंकि अपने-आपसे जितना ही अंतर किसी वस्तु का होगा प्रेम में उतनी ही कमी होगी परमात्मा में यदि हम परम प्रेमरूपा भक्ति चाहते हैं तो उसे भी अपने से अभिन्न करना ही होगा नहीं तो स्वभावत: जितना प्रेम अपने-आप (आत्मा) में है उतना उसमें कदापि न होगा *...*…


*सज्जनों* इसीलिए तो कहा है *आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति* यदि निकट जाना है तो दूरी कम करो और वास्तविक सान्निध्य तभी होगा जब दूरी विलुप्त हो जाये यही अद्वैतवाद का रहस्य है और यही वेदांत है हम *वसुधैव कुटुंबकम्* चाहते हैं और चाहते हैं मानव मात्र का कल्याण *जो वास्तविक सर्वाधिक है* इसके लिये आवश्यक है कि हमें *आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित:* को चरितार्थ करना होगा *...*…


जब तक गैरों के सुख-दु:ख को हम स्वयं अनुभव नहीं करेंगे तो उनके लिए मर मिटने को तैयार कैसे होंगे? लेकिन जब तक वे हमसे भिन्न हैं तब तक हजार कोशिश करने पर भी उनकी व्यथा का अनुभव हम नहीं कर सकते *उसे जान लें* जानना और अनुभव करने में बड़ा अंतर है अनुभव के लिए उसके साथ या अन्य के साथ हमको अपने तादात्म्य का ज्वलंत और जीवंत ज्ञान होना चाहिये *बिना इसके काम चल नहीं सकता* मानव मात्र के प्रति भ्रातृ भाव और सद्भाव यही सच्ची सेवा है *यही भगवान की सेवा हैं* और यही मानव धर्म हैं lllllllll


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